212*4
आ रही याद उनकी मुझे जोर से,
अश्क भी बह रहे आंख की कोर से।
हम छुपाते रहे बात मन की मगर,
प्रेम खुद ही महकता रहा पोर से ।
बदलियां बिजलियां और ये बारिशें,
मन दहलने लगा है इसी शोर से।
लूटकर ले गया चैन मनमीत बन,
हो गयी थी मुलाकात इक चोर से।
आसमां औ धरा मिल रहे हैं जहाँ ,
हम मिले आज जाकर उसी छोर से।
रात भर हम बदलते रहे करवटें
मन बहकने लगा फिर नई भोर से।
दूर अब तक रहे बंधनों से सभी,
अब बचें किस तरह 'प्रीत' की डोर से।
प्रीति सुराना
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