Wednesday 21 December 2016

'कुम्हार का चाक'

यूँ ही तनहा घूमते हुए पहुँच गई कुम्हार मोहल्ला जाने क्यों कुछ देर ठहर गई वहीं, यूं लगा घूमते हुए चाक ने अदृश्य बेड़ियां डाल दी मेरे पैरों में, एक अजीब सी कशिश एक अजीब सा रिश्ता क्या क्यों कैसे कब कुछ नहीं पता, बस वही बैठ गई कुछ दूरी पर, देखती रही चाक पर अनगढ़ मिट्टी का चढ़ना एक नए रूप में ढलना, पास पड़े कुछ ढले हुए सूखते पात्र, मटके, दीये, सुराही, चिलम, गोसरी और न जाए कितने रूप जिन्हें बाद में रंगा भी जाता है सुन्दर रूप और नाम पाकर मिट्टी के दाम गढ़ने वाले हाथों में मौजूद होते हैं। यही सब सोचते सोचते अचानक एक सवाल मन में कौंधा,आधारहीन किसी का अस्तित्व नहीं होता।
ये चाक जो लगातार घूम रहा इस सारी प्रक्रिया के लिए इसका अस्तित्व क्या???
इस चाक पर बनी हर वस्तु ने सही कीमत पाई अपने अस्तित्व की । मिट्टी ने रूप और आकार पाया कुम्हार ने दाम, और चाक ने???
इस चाक *कर्ज़* उतारने का कोई उपाय??
या फिर सबके वजूद का आधार बनने वाला ही रह जाता है हमेशा अकेला और निराधार
कुम्हार के चाक की तरह ,... प्रीति सुराना

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