Saturday 26 November 2016

'न वो घर मेरा न ये घर मेरा'

'न वो घर मेरा न ये घर मेरा'
            चारो ओर सन्नाटा कमरे में जोर जोर से गूंजती सुधीर के खर्राटों की आवाज़। कुछ घंटो पहले पारिवारिक विवाद के उससे कारण झगड़ कर सोया था सुधीर ।
       लेकिन रीता का मन क्षत विक्षत सा छटपटा रहा था और दिमाग लगभग सुन्न सा हो गया था। न बाहर का सन्नाटा अंतस के कोलाहल को सुन पा रहा था न ही खर्राटों का शोर सुन्न पड़े दिमाग को जगा पा रहा था।
         कुछ दिन ही तो हुए मायके के गृहप्रवेश पर किसी बात पर अपना विचार बताया तो भाभी ने टोका था कि रीता तुम्हारे घर के रीति रिवाज़ अलग हैं हमारे घर के अलग तुम रहने दो मैं कर लूंगी। तब भी टूटी थी पर खुद को संभाला चलो कोई बात नहीं ये घर भाभी का है तो क्या वो घर तो मेरा अपना है।
         आज सुधीर के एक कथन ने इस घर के प्रति सालों के समर्पण को दरकिनार कर दिया कि तुम पराए घर से आई हो हमारे घर के रीति रिवाज़ तुम क्या जानो?
        कल उसके बेटे की सगाई है,उसने मन बना लिया है कि ये घर और इस घर के सारे अधिकार बहु के होंगे। जो मुझे नहीं मिला वो सुख मेरी बहु को मिलेगा।
          अपने वजूद पर खुद ही प्रश्नचिन्ह लगाती टूटे मन और सुन्न पड़े दिमाग के साथ घंटों चेतनाशून्य पड़ी रही कि अचानक मानो दिमाग और दिल की नसों में रक्त का प्रवाह एक झटके से दौड़ गया और साथ ही एक सवाल कि वो घर भाभी का ये घर मेरी आने वाली बहु का तो मेरा क्या?? आखिर में खुद की एक घुटी सी दर्दनाक चीख और सुधीर का चौंक कर उठना याद है उसे।
          अभी अभी होश में आई रीता आई सी यू की दीवारों में कैद अब तक अपने सवाल का जवाब तो नहीं ढूंढ पाई बल्कि एक नए सवाल ने घेर लिया की वो यहां कैसे पहुंची, आसपास कोई भी अपना नहीं था जो उसे बता पाता कि वो यहां कैसे पहुंची ?
        एकाएक मन फिर विचलित होने लगा कि
'न वो घर मेरा न ये घर मेरा' अगर वो ठीक जो जाती है तो उसे कहां जाना चाहिए। उसका खुद का घर तो अब नहीं रहा वो तो सुधीर के एक वाक्य ने ही उससे छीन लिया,..मायका और ससुराल या बेटे का घर,..???

प्रीति सुराना

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