पीड़ा का एक गहन समंदर,
पलता है इस मन के अंदर,..
बाहर से लगता है जैसे
कितनी खुशियों का मेला है,
पर जीने वाले जाने हैं
हर कदम पर नया झमेला है,
जीते हैं रोकर या हंसकर
पीड़ा का एक गहन समंदर,
पलता है इस मन के अंदर,...
पीर पराई पर हंसते हैं
अपनों को अपने डसते हैं,
नहीं भरोसा कौन है अपना
निःस्वार्थ प्रेम बस है सपना,
जीते हैं हर रिश्ता डरकर
पीड़ा का एक गहन समंदर,
पलता है इस मन के अंदर,..
कभी ज्वार उठता है मन में
मोती बिखरे मिलते आंगन में,
जब भाटा आता भावों का
दुख बहा ले जाता संग में,
जीते हैं सुख के मोती चुनकर
पीड़ा का एक गहन समंदर,
पलता है इस मन के अंदर,.. प्रीति सुराना
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