Tuesday, 4 October 2016

"पटाक्षेप"

हेलो!
    कान से लगे फोन से परिचित स्वर सुनकर भी एकदम से सकपका सी गई थी मैं भूल ही गई कि मुझे कहना क्या था। फोन तो मैंने ही किया था इस गलती का एहसास होते ही खुद को संभाला।
     उधर से आवाज़ आई 'जल्दी बोलो'।
     मैंने कहा- मैं तुम्हे हर अपेक्षा और रिश्ते के दायित्व से मुक्त करती हूं। गलती बिलकुल भी तुम्हारी नहीं थी। गलती मेरी ही थी कि मैंने तुमपर विश्वास किया, विश्वासघात वही होता है जहां विश्वास हो।
     और उसपर मेरी दूसरी बड़ी गलती ये कि फैशन के इस दौर में भी मैंने स्लीवलेस कपड़े पहनने का शौक नहीं पाला जबकि कई लोगों ने चेतावनी दी थी कि आस्तीनों में सांपों के पलने का ख़तरा दिनबदिन बढ़ता जा रहा है।
चलो आज मैं करती हूं हमारे बीच हफ्तों से चल रहे मानसिक द्वन्द का 'पटाक्षेप'। इतना कहकर मैंने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।
      जानती हूं इस तरह पूरे घटनाक्रम से मेरा यूं बाहर हो जाना उसे सालता रहेगा उम्रभर क्योंकि मेरे प्रति किये गलत की ग्लानि और उसपर से मेरा मौन वक़्त बेवक्त उसे कचोटता रहेगा।
       सच कहूं तो मन तो मेरा भी कचोट रहा है कि ये भी तो बदला लेना ही हुआ ना?? राजनैतिक माहौल ने आखिर मुझपर भी असर डाल ही दिया।
फिर बैठी रही वहीं तनहा सन्नाटे में और पास के सिनेमाहॉल से एक पुरानी हिंदी फिल्म "आप तो ऐसे ना थे" के सुनाई दे रहे संवाद अचानक बंद हो गए। पर अभी तो आखरी शो ख़त्म होने का समय नहीं हुआ। मैंने मोबाइल पर समय देखा। और खुद ही बुदबुदाई पिक्चर अभी ख़त्म नहीं हुई ये तो मध्यांतर है।
अब लौट आई हूं घर आखिर जीवन की इस पिक्चर को भी मध्यांतर के बाद 'द एन्ड' तक जीना तो है ही। ,... प्रीति सुराना

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