Tuesday, 30 August 2016

डिस्पोज़ल

      सुधा तुम मेरी जिंदगी हो तुम ही मेरी प्रेरणा और हिम्मत हो। तुमसे ही मेरा जीवन चलता है। तुम्हारी वजह से मैंने जीवन जीना सीखा है। ये कहते हुए व्हाटसप पर अकसर सुधांशु मुझे भावुक कर देते थे। एक बहुत प्रतिष्ठित और सामाजिक छवि के सुधांशु जाने कही गुमनामियों और अवसाद में घिरते जा रहे थे की एक दिन अचानक मेरी किसी पोस्ट पर सोशल मिडिया के माध्यम से हममे दोस्ती हुई। मेरे परिचय के दायरे और सोच और तकनिकी ज्ञान के माध्यम से सुधांशु को एक नई पहचान बनाने के लिए प्रेरित भी किया और सहयोग भी,.. अपने अकेलेपन को भूलकर आभासी दुनिया की इस दोस्ती को जीने का मकसद बना लिया।
एक बड़े व्यवसायी के रूप में मेरा यही आभासी प्यार आज मेरे शहर में आने वाला है वो आया भी मैंने पूरे परिवार के साथ स्वागत सत्कार किया। वो कामों में व्यस्त रहा जब उसके वापस लौटने का समय आया तो मैंने सब कुछ खो देने जैसी पीड़ा महसूस की। जाते जाते वो कह गया सुनो बुरा मत मानना तुम मेरी सब कुछ हो पर ये दुनिया को जताना क्यूं?? यह कहकर सुधांशु चला गया । जैसे तैसे खुद को संभाला और बिखरा घर समेटने लगी । तभी नज़र पड़ी जो नाश्ते के डिब्बे और गिलास प्लेट चम्मच मैंने सुधांशु के साथ रास्ते के लिए निकाल रखे थे वो वहीं पड़े थे बस नाश्ते के डिब्बे खाली थे। मैंने अपनी बेटी से पूछा ये अंकल को दिया नहीं। बेटी ने कहा अंकल ने कहा कि सब डिस्पोजल बॉक्सेस में पैक कर दो और  गिलास और चम्मच भी डिस्पोजल ही दो ताकि चीजों को उपयोग के बाद फेक सकें संभालना न पड़े। अब तक सुधांशु के मुड़कर न देखने की वजह मुझे यही लग रही थी मुझसे दूर जाने की पीड़ा उसे भी है।पर अचानक कान में डिस्पोज़ल शब्द इस तरह गूंजने लगा कि अब मन की कोई आवाज़ सुनाई ही नहीं दे रही। मेरे अस्तित्व के अनुत्तरित प्रश्न का जवाब कहीं 'डिस्पोज़ल' तो नहीं,....??,... प्रीति सुराना

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