Monday 18 July 2016

निराशा के गहरे गर्त में,...

हां!!!
जब से थामा है तुम्हारा हाथ
जाने क्यूं मुझे
मेरे ही हाथों की लकीरें
बदली सी लगने लगी हैं,...
रहने लगी थी
जाने क्यों
मैं निराशा के
गहरे गर्त में,...
पर उन्ही गहराइयों में
तुमने उतर कर
सीढ़ियां बना दी है
उम्मीदों की,...
और
तुम्हारा हाथ थामे
मैंने बढ़ा तो लिए हैं
कदम,...
पर ऊपर तो
पहले तुम्हे ही रखना है
सफलता की धरातल पर
पहला कदम,..
जाने क्यूं
आज फिर से
हाथों की लकीरों को
देखने से डर रही हूं,...
कहीं आज
तुमने हाथ छोड़ दिया
तो मेरी लकीरें
फिर से न बदल जाएं,..
सुनो!!!
तुम ऊपर जाकर पीछे मुड़ना एक बार
पर हाथ छोड़े बिना
और मुझे भी ऊपर खींच लेना,...
अब नहीं जाना चाहती
उस अंधेरे गर्त में फिर से
जीना है मुझे
पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ,...

बोलो साथ दोगे ना मेरा??? ,... प्रीति सुराना

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