मां, मां, मां!!!!
कबसे गूंज रहा था ये संबोधन मेरे कानों में। उठते बैठते सोते जागते बस एक चीख सी सुनाई देती है मुझे। क्यूं किया मैंने ऐसा?? एक अजन्मा भ्रूण जिसका सिर्फ लिंग पता होने के कारण मैं तैयार हो गई गर्भपात के लिए।
पर क्या करती? मजबूर हूं सहे हैं एक लड़की होने के सारे दर्द,सारे जख़्म और टीस। पल पल भुगता है मैंने वो दंश जो इस समाज ने मुझे दिए हैं। कभी देवी बनाकर पूजा जब मैं कुवांरी कन्या थी। मेरे पैर धोकर पीये गए मातारानी के नौ दिन के पूजन में। दसवे दिन फिर वही हिराकत भरी नजरें और तिरस्कार। यहाँ तक भाई भी एक प्रतद्वंदी सा लगता था मुझे क्योंकि उसे ही दी जाती थी हर छूट।
जिस रिक्शे से स्कूल जाती थी उस रिक्शे वाले के स्पर्श का दंश। शाबाशी देने के बहाने पीठ पर हाथ फिराते शिक्षक की नीयत का दंश और यहाँ तक घर पर बड़ों से मिली सख्त हिदायद की रिश्तेदारों में भी पुरुषों से दूर रहो। बचपन से एक डर के साथ जीती आई हूं ।शादी के बाद ससुराल वालों के ताने, दहेज़ की मांग,पाबंदियां सबकुछ तो सहा है मैंने।
शायद इसी डर की वजह से मैं अपनी अजन्मी बच्ची को दुनिया में आने से पहले ही ख़त्म करने का मन बना बैठी। पर जब से लौटी थी अस्पताल से पल पल तड़प रही। 'मां' शब्द की चीख अनवरत मेरे कानों में गूंज रही है। आखिर इस बच्ची का कोई दोष नहीं है। मैं भी तो तड़पती थी ये सोचकर की आखिर मेरा कसूर क्या है। मेरी मन ने भी इसी तरह मुझे कोख में ही मार दिया होता तो???
क्या तब मैं दुनिया में होती। तमाम तकलीफों के बाद भी परिवार में,समाज में,दुनिया में मेरा अस्तित्व मौजूद तो है। शुक्रगुजार हूँ मैं अपनी मन की की मुझे लड़ना भले ही न सिखा पाई पर सहना तो सिखाया। तब मैंने प्रण लिया जीएगी मेरी बच्ची,और मैं उसे सहने के साथ संभालना भी सिखाउंगी और हालातों से लड़ना भी।
नौ महीने तक कोख में सुरक्षित बेटी के लिए आज मैंने एक ख़त लिखा है इस कल्पना के साथ की मेरी बेटी बिलकुल मेरे जैसी है।
कबसे गूंज रहा था ये संबोधन मेरे कानों में। उठते बैठते सोते जागते बस एक चीख सी सुनाई देती है मुझे। क्यूं किया मैंने ऐसा?? एक अजन्मा भ्रूण जिसका सिर्फ लिंग पता होने के कारण मैं तैयार हो गई गर्भपात के लिए।
पर क्या करती? मजबूर हूं सहे हैं एक लड़की होने के सारे दर्द,सारे जख़्म और टीस। पल पल भुगता है मैंने वो दंश जो इस समाज ने मुझे दिए हैं। कभी देवी बनाकर पूजा जब मैं कुवांरी कन्या थी। मेरे पैर धोकर पीये गए मातारानी के नौ दिन के पूजन में। दसवे दिन फिर वही हिराकत भरी नजरें और तिरस्कार। यहाँ तक भाई भी एक प्रतद्वंदी सा लगता था मुझे क्योंकि उसे ही दी जाती थी हर छूट।
जिस रिक्शे से स्कूल जाती थी उस रिक्शे वाले के स्पर्श का दंश। शाबाशी देने के बहाने पीठ पर हाथ फिराते शिक्षक की नीयत का दंश और यहाँ तक घर पर बड़ों से मिली सख्त हिदायद की रिश्तेदारों में भी पुरुषों से दूर रहो। बचपन से एक डर के साथ जीती आई हूं ।शादी के बाद ससुराल वालों के ताने, दहेज़ की मांग,पाबंदियां सबकुछ तो सहा है मैंने।
शायद इसी डर की वजह से मैं अपनी अजन्मी बच्ची को दुनिया में आने से पहले ही ख़त्म करने का मन बना बैठी। पर जब से लौटी थी अस्पताल से पल पल तड़प रही। 'मां' शब्द की चीख अनवरत मेरे कानों में गूंज रही है। आखिर इस बच्ची का कोई दोष नहीं है। मैं भी तो तड़पती थी ये सोचकर की आखिर मेरा कसूर क्या है। मेरी मन ने भी इसी तरह मुझे कोख में ही मार दिया होता तो???
क्या तब मैं दुनिया में होती। तमाम तकलीफों के बाद भी परिवार में,समाज में,दुनिया में मेरा अस्तित्व मौजूद तो है। शुक्रगुजार हूँ मैं अपनी मन की की मुझे लड़ना भले ही न सिखा पाई पर सहना तो सिखाया। तब मैंने प्रण लिया जीएगी मेरी बच्ची,और मैं उसे सहने के साथ संभालना भी सिखाउंगी और हालातों से लड़ना भी।
नौ महीने तक कोख में सुरक्षित बेटी के लिए आज मैंने एक ख़त लिखा है इस कल्पना के साथ की मेरी बेटी बिलकुल मेरे जैसी है।
मेरे आँगन की सोन चिरैया,
तुम्हे प्यार
मुझे बहुत खुशी होगी
जब कोई ये कहेगा
मेरी बेटी मेरा ही प्रतिरूप है।
मैं भी देना चाहती थी
ये दुआ अपनी लाडली को
मेरी तरह ही वह भी जिए।
पर नही दे पाई ये दुआ
क्यूंकि आज मेरी खुशहाली के पीछे
छुपे है जाने कितने मर्म,
कितने समझौते,कितने बंधन,
कितने बलिदान,कितने क्रंदन,
कितनी दहशत,कितनी बेबसी,
कितने ही टूटे हुए सपनों की चुभन,
कितने ही कुचले गए अरमानों का दर्द,
मुसकान की आड़ में कितने ही आंसू,
मैं नही चाहती तुम जियो मेरी तरह,
या मेरी तरह इस समाज में जी रही
दूसरी स्त्रियों की तरह,..दिखावे की खुशी,..
जाओ,...
जी लो जिंदगी,...पूरे करो सपनें,
सजा लो अपने अरमानों की दुनिया,..
बिना डरे,बिना हिचके,बिना रूके,
बिना बलिदान और समझौते किए,
पा लो अपनी मंजिल और सारे अधिकार,
वहशियत के इस दौर में दहशत को जीत लो,..
मत भूलो की नारी ही समाज का आधार है,
मैं नही कहूंगी मत करना सीमाओं हनन,...
क्यूंकि जानती हूं तुममें मेरे ही संस्कार है,..।
जियो जी भर के,..
मेरी लाडली,..ये जिंदगी तुम्हारी है
यही मेरा आशीष तुम्हे हर पल हर बार है.....।
तुम्हारी माँ
प्रीति सुराना
तुम्हे प्यार
मुझे बहुत खुशी होगी
जब कोई ये कहेगा
मेरी बेटी मेरा ही प्रतिरूप है।
मैं भी देना चाहती थी
ये दुआ अपनी लाडली को
मेरी तरह ही वह भी जिए।
पर नही दे पाई ये दुआ
क्यूंकि आज मेरी खुशहाली के पीछे
छुपे है जाने कितने मर्म,
कितने समझौते,कितने बंधन,
कितने बलिदान,कितने क्रंदन,
कितनी दहशत,कितनी बेबसी,
कितने ही टूटे हुए सपनों की चुभन,
कितने ही कुचले गए अरमानों का दर्द,
मुसकान की आड़ में कितने ही आंसू,
मैं नही चाहती तुम जियो मेरी तरह,
या मेरी तरह इस समाज में जी रही
दूसरी स्त्रियों की तरह,..दिखावे की खुशी,..
जाओ,...
जी लो जिंदगी,...पूरे करो सपनें,
सजा लो अपने अरमानों की दुनिया,..
बिना डरे,बिना हिचके,बिना रूके,
बिना बलिदान और समझौते किए,
पा लो अपनी मंजिल और सारे अधिकार,
वहशियत के इस दौर में दहशत को जीत लो,..
मत भूलो की नारी ही समाज का आधार है,
मैं नही कहूंगी मत करना सीमाओं हनन,...
क्यूंकि जानती हूं तुममें मेरे ही संस्कार है,..।
जियो जी भर के,..
मेरी लाडली,..ये जिंदगी तुम्हारी है
यही मेरा आशीष तुम्हे हर पल हर बार है.....।
तुम्हारी माँ
प्रीति सुराना
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