सुनो!!
मैं जीती हूं हर रोज
हर पल
मौत का क्षण
अपनी मानसिक,शारीरिक,आर्थिक,
और सामाजिक चुनौतियों से रुबरु होते हुए,
क्योंकि मैं भी एक सैनिक रही हूं
अपने घर की प्राचीर की,..
लेकिन
छोड़ दी है आस अब जीने की,
क्योंकि घर का हर सदस्य
अपनी अपनी दीवारें बांट चुका,..
अब करता है हर सदस्य
अपनी दीवार की रक्षा स्वयं,..
अब जर्जर हो चली है मेरे हिस्से की दीवार,
कुछ उम्र के चलते,..
कुछ अब तक की जिम्मेदारियों के बोझ के कारण,..
और कुछ इसलिए भी बंटते देख अपने ही घर की दीवारों को
इच्छाशक्ति ख़त्म हो चली है मेरी,..
और
इसी ख़त्म होती इच्छाशक्ति के साथ
कभी कभी उम्मीद की लौ जल उठती है
और मांग लेती हूं
दो घूंट पानी
शायद इस बहाने कोई गंगाजल ही पिला दे,...प्रीति सुराना
जीवटता बनी रहे जीवन की।
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