Sunday, 31 January 2016

इतनी दूरियां क्यूं,..?

सुनो!

बचपन में ठण्ड से ठिठुरती
बिना चादर सो जाती
तो मां ने पूछा नहीं,
बस चादर उढ़ा दी,...।

कभी बुखार में
बदन तपा तो
पापा ने पूछा नहीं ,
और ठन्डे पानी की पट्टियां रख दी,...।

स्कूल से लौटते समय
कभी सायकिल का पहिया पंचर हुआ
तो भाई ने पूछा नहीं ,
अपनी साईकिल देकर कहा तू घर जा,...।

कभी खेलते हुए
अचानक बारिश हुई
तो दोस्तों ने पूछा नहीं ,
अपनी छतरी मुझसे साझा की,...।

आज जिंदगी के मुश्किल दौर में
तुम्हारा पूछना
कि मेरी कोई मदद चाहिए,
सच बहुत अच्छा लगा,...।

पर
सवाल ये है कि
सम्पूर्ण समर्पण प्रेम
और विश्वास के बाद भी,
इतनी दूरियां क्यूं,...?

अगर फासले न होते
तो मदद के लिए सवाल की बजाय
मेरे अरमानों के बिखरते घरोंदे को
संभालने को,
तुम्हारे हाथ आगे होते,...।
है ना!! 

शायद मेरा प्यार ही कहीं कम पड़ गया,...प्रीति सुराना

2 comments:

  1. सोंचने को बहुत कुछ छोड़ जाती है ये कविता।

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