Monday, 28 September 2015

जीवन में दुःख की क्या भूमिका है???

आज यूं ही फुरसत के पलों में न्यूज़ पेपर लेकर बैठ गई ।
             एक खबर पढ़ी आत्महत्या की,.. जिसमें लिखा कि शहर के एक जाने माने व्यवसायी ने आत्महत्या कर ली और अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि "मैंने अपने परिवार के लिए सारे सुख साधन जुटाए पर मैं खुद दुखी हूं और मेरे दुःख का जिम्मेदार मैं स्वयं हूं क्यूंकि मुझे अपने दुखों से लड़ना नहीं आया, इसलिए मैं आत्महत्या कर रहा हूं।"
     इसी खबर के ठीक नीचे लिखा था एक मजदूर ने ट्रेन के नीचे आकर दी अपनी जान ,..लोगों ने बताया "तीन दिनों से भूख था क्यूंकि उसे कोई काम नहीं मिला था और मजदूरी न मिलने से रोटी नहीं जुटा पाया और भूख के तंग आकर दे दी अपनी जान,."
           एक और खबर जिसमें चोरी करते पकड़े जाने पर चोर ने बताया की बच्चे की स्कूल फीस भरनी थी,..मैं अपने बच्चे को इस लायक बनाना चाहता हूं कि उसे चोरी न करनी पड़े,..।
                अगली खबर जिसमें लिखा था महिला संगठन ने एक विधवा महिला को दिया सफल महिला गृह उद्योगी का पुरुस्कार,.. पुरुस्कार पाने वाली महिला ने कहा कि पति के जाने के बाद दुःख से लड़ने और बच्चों के भविष्य की सुरक्षा के लिए मैंने घर पर ही काम करना शुरु किया जो धीरे धीरे गृह उद्योग में बदल गया और आज मैं एक सफल महिला उद्योगी बन पाई ।
       पड़ोस में एक बच्चे ने अपने पिता के अंधत्व के दुःख से प्रेरित होकर मेडिकल में दाखिला लिया और आज वो एक नेत्र विशेषज्ञ है।
          कल मोहल्ले में कई घरों में काम करने वाली बाई शराबी पति से दुखी होकर अपनी चार साल की बच्ची को अकेला छोड़कर एक दूसरे विवाहित व्यक्ति के साथ भाग गई।
           आप सोच रहे होंगे कि ये सारी ख़बरें मैं आपको क्यों बता रही हूं?? क्योंकि ये सब पढ़कर और सुनकर मैंने गौर किया की सारी ख़बरों में एक सर्वनिष्ठ शब्द था "दुःख" ।
         बहुत सोचने के बाद मुझे तो यही लगता है कि दुःख एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें व्यक्ति सही और गलत में से किसी एक को चुनकर कुछ ऐसे फैसले लेता है जो उसकी जिंदगी के सारे गणित बदल कर रख देती है । जो दुःख से डर गया वो पलायन करता है और जो इस डर से जीत गया वो परिस्थियों को अपना गुलाम बनाकर राज करता है ।कोई दुःख से निराश होकर अपना सब कुछ खोता चला जाता है और कोई दुःख को सुख में बदलने के प्रयास में जीता चला जाता है। कोई दुःख में अपना हुनर भूल जाता है और किसी का दुःख में हुनर निखर जाता है ।
           ये सब निर्भर करता है व्यक्ति की सोच पर, व्यक्ति के विवेक पर और व्यक्ति के आसपास के माहौल पर। व्यक्ति की सकारात्मक और नकारात्मक सोच दुःख से उपजी परिस्थियों को दिशा देती है और समझ या विवेक उस दिशा पर चलने का निर्णय लेने में सहायता करती है और आसपास का माहौल उस मौसम की तरह होता है जो उस राह में चलने में सहायक या अवरोधक बनता है।
मुझे लगता है:-

दुख
वह परिस्थति है,
जिसमें मन की सारी संवेदनाएं,
भावनाएं और विचार
इतनी प्रबलता से प्रकट होते हैं,
कि हमे जिंदगी में
कई सारे नए अनुभव होते हैं,..
अपने-पराए,
सच-झूठ,
सवाल-जवाब
जैसे कई नए मुद्दे खड़े होते हैं,
जिनमें से
कुछ के लिए
मन स्वीकृति
और
कुछ के लिए
विद्रोह के नारे लगाता है,...

            मैं ये सब सिर्फ समाचार पत्रों की ख़बरों के आधार पर नहीं कह रही हूं,..हर इंसान यहां सुख-दुःख दिन-रात धूप-छांव सब देखते हुए सहते हुए ही जीता है ।मैं भी एक इंसान हूं सो ये सब मैंने भी देखा और सहा है ।मेरे जीवन में भी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक परिस्थितियों ने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव डाले हैं । सकारात्मक प्रभावों ने जीवन को जीने योग्य बनाया तो नकारात्मक पहलुओं ने जीवन के लिए लड़ना सिखाया,..। कई बार मेरे भी कदम डगमगाए,.कई बार गिरकर सम्भली हूं मैं भी,..डर जाती हूं मैं भी हालातों से,..इसलिए मुझे ये कथन प्रेरित करता है "डर के आगे जीत है" और जीतना है तो खुद से लड़ना ही होगा,.। मरना या भाग जाना कोई हल नहीं है। हार ही अगर भाग्य में है तब भी बिना लड़े हारना मेरी नज़र में कायरता है ।

एक राज़ की बात बताऊं???

मैं ये सब लिख पा रही हूं क्यूंकि मैं भी बीमारी से लड़ने और जीतने के लिए,..खुद से निराशा को दूर रखने के लिए लेखन जैसे रचनात्मक कार्य से जुड़ी और आज अपनी पीड़ाओं को और परिस्थितियों को वश में करने का हुनर सीख लिया है मैंने,..। आगे भी लिखती रहूं और मन की बात कहती रहूं दुआ कीजियेगा और अनजाने में किसी का दिल दुखाया हो तो क्षमा कीजियेगा।,...प्रीति सुराना

5 comments:

  1. Wow ! Nice poem.
    बिलकुल सच कहा आपने।

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  2. आप की लिखी ये रचना....
    30/09/2015 को लिंक की जाएगी...
    http://www.halchalwith5links.blogspot.com पर....
    आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित हैं...


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