हां!!
ख़ामोशी के बाज़ारों में
जब जब लफ्जों का
उछाल आता है,..
तोहमतों और शिकायतों
वादों और इरादों का
क्रय-विक्रय बढ़ जाता है,..
ऐसे में बढ़ जाती है
अमन की मांग,..
और
कलह और जिरह की खपत,.
भावनाओं की अर्थव्यवस्थाएं
इतनी बिगड़ती है,
कि
जिंदगी भी सोच में पड़ जाती है,..
यार ये कैसा व्यापार कर लिया मैंने??
इससे बेहतर तो
गुमनामी की नौकरी थी,..
ना भावनाओं की लागत लगती,.
ना इज्जत की पूंजी,..
ना बदनामी का टेक्स,..
माना
गुजारा मुश्किल से होता,.
पर हिसाब किताब की
झंझटें भी कम ही रहती,
सोचती हूं,
ये मुश्किल व्यापार छोड़कर,
गुमनामी की नौकरी ही कर लूं,..
आपको कोई जानकारी हो
किसी रिक्त स्थान की,
जहां मुझे ऐसी नौकरी मिल सके
तो कृपया जरूर बताएं... प्रीति सुराना
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