Friday 8 May 2015

आखिर ये नदी का हक है,...!!!



मैंने 
तुममें
हृदय की विशालता देखी, 
विचारों में गहनता देखी, 
व्यवहार में सरलता देखी,
व्यक्तित्व में तरलता देखी,..
ये सब देखकर झट से 
तुम्हे "सागर" कह दिया,.....

क्यूंकि
कई बार की है मैने खुद की तुलना नदी से,..
जार जार रोई हूं कई बार सागर किनारे,...
बहा आती हूं अपनी भावनाओं को सागर की लहरों में,..
बिलकुल वैसे जैसे तुमसे मिलकर निकाल देती मन के सारे गुबार,..
हर बार अच्छा लगता है तुमसे मिलकर,..
ठीक वैसे ही जैसे ये सोचकर लगता है
नदी को पूर्णता मिलती होगी सागर से मिलकर,...

पर
मैं जैसे जैसे तुम्हारे करीब आ रही हूं
और तुम्हारे मन की गहराई में उतरती जा रही हूं
तुम मुझे उतने ही गहन और गहनतम लगते हो,..
ऐसा लगता है,.. 
जैसे तुम्हारे मन में जितना भी उतरने कि कोशिश करती हूं,..
तुम और तुम्हारे विचार और भी गहरे होते चले जाते हो,...
मानो भीतर ही भीतर गहरी सुरंग बना रखी हो,.
और छुपा रखे हों कई गहरे राज़,... 

और हां!!!
प्रेम और विश्वास के सच्चे मोती भी,..
भावनाओं की सीपियों में,....
तभी तो आता है यदाकदा तुममें भी भावनाओं का ज्वार,..
और बिखर जाता है मेरे कदमों में 
सीपियों में बंद मोतियों सा तुम्हारा प्यार,...
और कभी भाटे की तरह तुम बहा ले जाते हो
मेरे सारे दर्द और आंसू,...

सुनो ना!!!
मैंने सागर को उथला उथला ही देखा और जाना है,..
कभी उसकी गहराई में उतरने की कोशिश नही की,..
इसलिये नही जान पाई वो कितना गहरा है,..??
वैसे मैं तुम्हारे भी मन की तह तक भी कहां पहुंच  पाई हूं अब तक,..??
अपने मन और सागर की थाह तुम तो जानते ही होगे ना
अगर तुम्हे पता हो तो मुझे बताओ ना,.....??
आखिर ये नदी का हक है,.....है ना???,...प्रीति सुराना

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