Tuesday, 5 May 2015

"भोर का सपना"

"भोर का सपना"

सुनो !!
आज सुबह-सुबह 
मैंने एक सपना देखा,..

बरसों से जिस जमीन पर मैंने घर बनाने क सपना देखा था,
वो आज काफी जद्दोजहद के बाद मिल गई,...
बहुत मेहनत से मैंने घर बनाना शुरु किया,..

पहली मंजिल जो जमीन पर बनी वो सबसे बड़ी थी,
उसमें रखा मैंने सपनों को,
कुछ पूरे,कुछ अधुरे,कुछ टूटे फूटे सपनें,..

दूसरी मंजिल जो पहली से जरा छोटी थी,
उसमें रखा दर्द को,
कुछ अपने दर्द,कुछ अपनों के दर्द,..

दूसरी मंजिल से जरा छोटी थी तीसरी मंजिल,
उसमें रखा आंसुओं को,
कुछ बहते-कुछ रूके हुए,कुछ गीले-कुछ सुखे आंसू,..

तीसरी मंजिल से कुछ छोटी थी चौथी मंजिल,
उसमें रखा हंसी को,
कुछ हंसी मेरी खुद की,कुछ लोगों ने जो उड़ाई थी मेरी हंसी,..

चौथी मंजिल से कुछ और छोटी पांचवी मंजिल,
उसमें ऱखा खुशियों को,
कुछ अपनी खुशियां,कुछ अपनों की खुशीयां ,...

पांचवी मंजिल सबसे छोटी थी,..
पर 
खुशियां भी तो कम ही थी,..

सबसे ज्यादा थे सपनें,,
फिर दर्द,फिर आंसू,फिर हंसी,फिर खुशी,..
क्रमशः हर मंजिल के माप के साथ साथ भावनाएं भी कम होती गई,..

हर मंजिल को सजाते-सजाते,.
आखरी मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते,
मैं बहुत थक गई,..सासें फूलने लगी,...

सोचा सबसे ऊपर छत पर जाकर,
खुली हवा में सांस लूं,..
शायद मेरे अपने वहां मेरा इंतजार कर रहे होंगे,...

जैसे तैसे छत पर पहुंची
पर वंहा कोई नहीं था,...न अपना न पराया,... 
सुबक सुबक कर रो पड़ी मैं,.....

तभी अचानक मेरी नींद खुल गई,...
आंसुओं और पसीने से लथपथ थी मैं,..बहुत डरी हुई,..
सपना बिलकुल सच सा लगा,...

मानो
अपनी ही जिंदगी पर अपना अधिकार पाने की जद्दोजहद करते करते,...
टूटे हुए अधूरे सपनों का बहुत सारा दर्द लिए आंसू बहाते-छुपाते,...

कभी असली,कभी बनावटी 
हंसी के चंद कतरों से,..
कुछ छोटी-छोटी खुशियों को पाया तो था,..

पर 
जब इन खुशियों को जीने का वक्त आया,
तब तक साथ अपना कोई था ही नही,...

जिन अपनों के साथ की खातिर अब तक जी गई,..
वो साथ ही जीवन का सबसे बड़ा भ्रम निकला,...
और आज भोर के इस आखरी सपनें के साथ शायद टूट गए सारे भ्रम भी,......प्रीति सुराना

0 comments:

Post a Comment