सुनो!!
बादल तो
कबके बरस कर जा चुके हैं,..
पर हमेशा की तरह
ज़मीन अब भी गीली है,..
अब
फिर से सूरज आएगा,..
ज़मीन को
फिर तपाएगा,.
झुलसाएगा,..
नमी
फिर से
सूखकर,.
जलकर,.
वाष्पित होगी,..
फिर से
बादल
घुमड़ेंगे,..
गरजेंगे,..
और बरसकर शांत हो जाएंगे,..
पर ज़मीन????
मेरे मन के आंगन में ज़ज्बातों के बादलों से हुई,..
आंसुओं की बारिश की तरह,..
सूखने और गीले होने की प्रक्रिया को सहती रहेगी,..
हमेशा-हमेशा,..
रात-दिन,..
सुख-दुख,..
हंसी-आंसू,..
सब आते जाते रहते हैं,..
कोई रुकता नहीं,..
क्योंकि
यही तो नियती है,.
यही तो शाश्वत सत्य है,.
यही तो कालचक्र है,..
है ना,.. प्रीति सुराना
सुंदर रचना
ReplyDeleteआभार
Deleteबेहतरीन रचना ....
ReplyDeleteआभार
Deleteजमीं धरती जो है ... तरसना ही उसका नसीब है ...
ReplyDeletesach kaha
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत ही अच्छी रचना.
ReplyDeleteआभार
Deleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसार्थक और भावप्रणव रचना।
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeletedhanywad
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