सुनो!!
मैंं नहीं चाहती,...
हमारा प्रेम सूरज और संध्या की तरह हो
जो
हर रोज़ मिलते हैं
पर हर बार मिलते ही फिर ज़ुदा हो जाते है,.
मैं नहीं चाहती,...
हमारा प्रेम धरती और आकाश की तरह हो
जो साथ तो हमेशा रहेंगे
पर
उनका मिलना दूर क्षितिज़ पर भी मात्र भ्रम है,.
मैंं नहीं चाहती,...
हमारा प्रेम चांद और चांदनी की तरह हो
जो
पूर्णिमा को पूरा होने के बाद
हर बार अमावस तक फिर घटता जाए,..
मैं चाहती हूं,..
हमारा प्रेम नदी और सागर की तरह हो
जो
एक बार मिले
तो फिर कभी जुदा नही होते,..
या यूं कहूं,..
नदी की नियति
सागर से मिलना ही होता है
जो कि निर्धारित भी है
और सत्य भी,..
एक बार सागर और नदी मिले तो
उन्हे जुदा कर पाना सम्भव नही है
और उनके प्रेम की महानता ये है
कि हमेशा मिलकर दोनों का ही मान बढ़ता है,...
ये प्रेम कभी कम नहीं होता,...होता है संपूर्ण,..,..
"संपूर्ण प्रेम",.....,.. प्रीति सुराना
आप की ये खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteदिनांक 14/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है...
आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित हैं...आप के आगमन से हलचल की शोभा बढ़ेगी...
सादर...
कुलदीप ठाकुर...
आभार
Deleteवाह,बहुत खूब
ReplyDeleteआभार
Deleteवाकई में नदी और सागर का प्रेम ही संपूर्ण प्रेम होता है
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteआभार
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