Sunday, 7 October 2012

मेरी कल्पनाओं का वो अदृश्य प्रेम


जिंदगी एक ऐसे दौर में है कि 
जिम्मेदारियों और परिस्थितियों ने,
कितनी अजीब सी कड़वड़ाहट भर दी थी,
कैसा अनमनापन सा,
कि हर काम बस सिर्फ इसलिए करना है 
क्यूंकि करना जरूरी है,
अपनों के सुख-दुख में यूं खोया खुद को,
कि अपना वजूद ही भूल गई,..
जिंदगी की इसी उधेड़बुन में वक्त ने 
एक लंबा फासला तय कर लिया,...

बस यही सोचते-सोचते 
मैं कल्पना के आगोश में चली गई,
और जब कल्पनाओं से बाहर आई तो
एक नई ताजगी महसूस की,
कुछ भी करते हुए कोई अनमनापन नही,
मन पर कोई बोझ नही,
चेहरे पर नाहक ही मुस्कुराहट,
होठों पर किसी पुराने गीत की गुनगुनाहट,
यूं लगा कि हर कदम पर है खुशियों की आहट,
सब कुछ महका महका सा,....

सब कुछ वैसा का वैसा,
न परिस्थितियां बदली न जिम्मेदारियां,
पर अचानक सबकुछ अच्छा लगने लगा,
जैसे मेरे मन को पंख लगे हों जो,
यंहा होकर भी ले गया मुझे कल्पनाओं के लोक में,
अब मैं महसूस करती हूं जैसे मेरे आसपास कोई है,
जो मुझे मुझसे ज्यादा समझता है,
मेरी पीड़ा,मेरी खुशी को महसूस करता है,
मुझे संभालता है जब मैं हालात के चलते,
कमजोर पड़ने लगती हूं,...

न कोई शिकायत,न कोई झंझट,
उसे मैं बिलकुल वैसी ही पसंद हूं जैसी मैं हूं,
वो नही चाहता कि मैं उसकी खुशी के लिए
खुद को बदल लूं,
अब मैं खुश रहती हूं हर पल हर हाल में,
जी जान से करती हूं हर जिम्मेदारी पूरी,
और फिर भी रखती हूं अपना खयाल,
क्योंकि मैंने जिंदगी में शामिल कर लिया है 
"उसे"
यानि मेरी कल्पनाओं का वो अदृश्य प्रेम,
जिसने मेरे वजूद में शामिल होकर मुझे पूर्ण कर दिया,....प्रीति सुराना

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