मैंने सच को कभी नही देखा,..
मैंने नही देखा कि उसकी शक्ल कैसी होती हैं,..
क्यूकि जब भी किसी बात को सच मानने लगती हूं,..
उसे झूठ साबित करने के लिये
दिये जाते है कई तर्क,..
और मेरे लिये जो सच है,
वही दूसरो के लिए झूठ बन जाता है,..
जैसे मैं कहूं कि
"वो अच्छा है"
तो लोग कहते हैं
नही वो बुरा है यही सच है,..
और वो भी अपने इस सच को
अपने तर्को से साबित भी करते है,..
तो फिर मेरा सच झूठ हो जाता है,..
तब मुझे लगता है,
कि या तो सच और झूठ दोनो ही भ्रम है,
या सिर्फ
हमारे आस-पास की परिस्थितियो के अनुरुप बना हुआ,..
हमारा नजरिया,
या मान्यता
या पैदा हुई सोच की अभिव्यक्ति,..
ऐसा मुझे लगता है,..
जरुरी नही कि ये भी सच/झूठ हो,..
क्यूंकि
मैंने सच को कभी देखा नही,..
शायद इसीलिए मैं झूठ को भी नहीं पहचान पाती,..
कहीं ये एक ही सिक्के के दो पहलू तो नही,..
बात सच हो या झूठ
बस काम बनना चाहिए,.....प्रीति सुराना
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