चारो ओर जो फैल रहा है व्यभिचार का रोग अभी,
नारी वहम की बली चढे़ और तन मन से जाए यूं छली,
सहभागी हर सुख-दुख में और सहगामिनी हर पल बनी,
उसी सीता की ली अग्निपरीक्षा और परित्यक्त भी हुई वही,
कंहा मिलेगा अब नर ऐसा,जो रावण ही बन जाए,
राम कई अब भी मिल जाएंगे पर रावण सा कोई बचा नही,
प्रभु भक्ति ऐसी अनुपम थी,नस बनी वीना का तार,
ज्ञान का भंडार भरा था पर अहम् ज्ञान पर किया नही,
सत्ता और जान लुटा दी जिसने बहन की कटी नाक पर,
पर स्त्री को हरण किया पर छल-बल से वरण किया नही ,
राम सा पति न भी मिले पर भाई रावण सा ही मिले,
नर राम नही रावण बन जाए,है आज समय की मांग यही,....प्रीति सुराना
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