Tuesday 18 September 2012

मैं एक स्त्री हूं,.


मैं एक स्त्री हूं,..

जो स्त्रीत्व की सीमाओं मे
रहते हुए जीती हूं 
एक कल्पनाओं की जिंदगी,
दिन की शुरूआत से 
रात के सन्नाटे तक,.

पृथ्वी की तरह 
दिन रात के कालचक्र में,
रोज अपने ध्रुव पर,
चलता है मेरा भी जीवन
और दिन यूं ही गुजर जाता है,..

पृथ्वी की वार्षिक परिक्रमा की तरह 
मैं भी अपनी ही धूरी पर,
बढ़ती जाती हूं एक एक कदम,
पृथ्वी की धूरी के हर मोड़ की तरह
मेरे भी जीवन में बदलते है मौसम,..

पृथ्वी की सूरज और चंद्रमा से 
दूरी और सामिप्य से 
बदलती प्राकृतिक परिस्थितियों की तरह,.
मुझे भी फर्क पड़ता है 
मेरे अपने और परायो की निकटता और दूरी से,..

पृथ्वी की तरह 
बाढ़,सूखा,पतझर,ज्वार-भाटा, 
भूकंप और ज्वालामुखी,
मैने भी भोगे हैं,
आंसुओं की आर्द्रता,

प्रेम में उद्दिग्नता,
अहसासों की तपिश,
भावनाओं के ज्वार,
निराशा के भाटा,
क्रोध के ज्वालामुखी,

अपने वजूद की
डगमगाहट का भूकंप,
अपनी धूरी से हट जाने से 
होने वाले हादसे का डर,
और हर पल प्रलय का आतंक,

और गुरूत्वाकर्षण बल की तरह
अपने परिवार का मोह,
जो हर विपदा के बाद भी 
न दिन-रात की गति की व्यवस्था बदलने देता,
न रोकता मेरे जीवन की गति को,...

और मैं जी लेती हूं
परिवार नामक ध्रुव 
और प्रतिबंधित धूरी पर,..
घूर्णन और परिक्रमा करते हुए,..
पृथ्वी की एक वार्षिक परिक्रमा की तरह,..

अपना पूरा जीवन,.......प्रीति सुराना

3 comments:

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  2. बहुत सुंदर ...... बहुत खूब ....सुंदर लेखनी

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