Wednesday, 7 March 2012

मेरे मन का सागर



वो सागर 
मन का 
जो बहता था,
जब भी लहर बनकर 
आवेग मे,
झरते थे आंसू 
बन कर भावों के मोती,
वो बेशक खारे थे,
पर दुखद 
कि तुमने चखा भी,
देखा भी,
पर न समझा मुझे,
न समेटा मेरे आंसुओं को,
न संभाला
 मेरे मन का सागर,....प्रीति सुराना

0 comments:

Post a Comment