Wednesday 1 February 2012

नन्ही जुराबें


आज न जाने क्यूं बहुत मन किया 
कि कुछ बुनूं ऊन के ताने बाने से,
अपने भीतर पल रहे
अपने आने वाले कल के लिए,
दो सलाईयां ली मैंने 
फिर ढूंढा तो हाथ आया
एक रंगहीन ऊन का गोला
सोचा चलो जो मिला है
उसी से शुरू करूं
उन नन्हे नन्हे कदमों के लिए
नन्ही नन्ही जुराबें बुनना,

मैंने फंदे डाले,
उस ऊन से सलाईयों पर
फिर शुरू किया उसे बुनना
कुछ  फंदों का घटाना
तो फिर कुछ फंदों का बढ़ाना
यूं ही घटते बढ़तेफंदों को देखकर लगा
कि जिस तरह ये फंदे घट-बढ़कर
कहीं छेद तो कहीं उभार लेकर
बना रहे हैं एक नया स्वरूप
उन नन्हे कदमों के लिए
जिनकी हलकी हलकी थपकियों से
हो रहे दर्द को सहकर भी
मैं महसूस कर रही हूं
एक अजीब सी खुशी
और जानती हूं कि
बुनाई की अंतिम पंक्ति के बाद,  
इन सलाईयों का कोई वजूद नही रह जाएगा
पर वह रंगहीन ऊन
अब एक नया रूप ले लेगा ,
जो सुरक्षित रखेगा
सर्द हवाओं से उस आने वाले कल
यानि उस शिशु के नन्हे कदमों को
जिसे जन्म देने वाली हूं मैं,...प्रीति

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