अंतर्वस्त्रों की तरह तारतार है
अंतर्मन के भाव,
बाहर खूबसूरत वस्त्रों में
हैवानियत को छुपा रखा है
अस्तित्व ही कहां बचा
आजकल इंसानियत का,
इंसानियत को तो
सजावट का सामान बना रखा है,
क्यू होते हो शर्मिंदा ए आदमी
तुम अपने फटे जूतों
और तार तार हुए वस्त्रों पर
कम से कम तुमनें तो
अपने अंदर
आदमियत को जिंदा रखा है....प्रीति सुराना
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