Wednesday, 25 January 2012

प्रश्नचिन्ह


समीकरण कितने भी बदल जाएं,...
मापदंड कितने भी परिवर्तित हो जाएं.
समय का चक्र कितना भी आधुनिकता का लिबास ओढ़ ले,
अमिट सत्य तो यही है,
स्त्री और पुरूष चाहे कितना भी 
शत्रुता,प्रतिद्वंदिता,विरोध और असहिष्णुता का प्रदर्शन करे,...
प्राकृतिक नैसर्गिक और शाश्वत सत्य यही है
कि ये शत्रु नही एकदूसरे का पर्याय हैं,
का कोई कारण ही नही है 
यदि स्वीकार कर ली जाए एक दूसरे की पूरकता,
दिन और रात कभी एक दूसरे के बिना कालचक्र को पूरा कर पाए है,,...?
स्त्री और पुरूष रच पाए है कभी अकेले किसी नई संतति को,.....?
तो फिर ये कोई संघर्ष क्यों?
हर बार स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का माप-तोल क्यों?
महत्व का आकलन और अस्तित्व पर प्रश्निन्ह क्यों?
क्यूं हम स्त्री और पुरूष के
संकुचित संबोधनो को परे रख कर
इंसान और इंसानियत पर मुद्दे नहीं उठाते ?
कब हम खुद को सृष्टि की अनुपम कृति मानकर अपना और अपने अस्तित्व का आकलन करेंगे???

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