Wednesday, 14 December 2011

काश मैं कुछ और होती,.


काश दरिंदों की दुनिया से दूर,
मैं इंसा न हो कुछ और हो कुछ और होती,

काश मैं ये रौशन जंहा होती,
या फिर क्षितिज तक फैला आसमां होती,
बागवां का फूल न होती मगर,
काश मैं इस चमन की धूल होती,

गम गर कोई होता मुझको,
तो बादलों की तरह बरस कर रोती,
खुशियों के साए में जो पलती,
तो मुस्कुराती हुई घटा होती,

बंधन में न बंधी हुई मैं,
कोई बहती हुई हवा होती,
खुद में प्यार की तपिश को समेटे,
मैं एक जलती हुई शमा होती,

खुले आकाश में स्वच्छंद उड़ती,
काश मैं कोई चिड़िया होती,
एकता का संदेशा देती हुई मैं,
वृक्ष से लिपटी हुई लता होती,

काश दरिंदों की दुनिया से दूर,
मैं इंसा न हो कुछ और हो कुछ और होती,....प्रीति

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