श्रम का सीकर नित्य बहाकर
अन्न उगाता अन्नदाता।
ऋतुओं का संताप उठाता
सब सह जाता अन्नदाता।
वर्षा में हल चलकर, बीज डालकर
अंकुरण की प्रतीक्षा करता अन्नदाता।
एक-एक अंकुर व्यवस्थित रोंपता
सींचता पोसता अन्नदाता।
पेट काटकर, जान लगाकर
अन्न उगता अन्नदाता।
भूमि का सेवक, माटी का पुतला,
सबकी भूख मिटाता अन्नदाता।
जग निर्माता उस विधाता को भी
अपने अन्न से भोग लगाता अन्नदाता।
जन्म दिया ईश्वर ने, माँ की कोख ने दिया जीवन
ईश्वर और माँ सा ही पूज्य है अन्नदाता।
शत-शत नमन मातृभूमि, मैं तो ऋणमुक्त नहीं हूँ
तेरा ऋण जो जीकर चुकाता, वंदनीय है वह अन्नदाता।🙏🏼
#डॉप्रीतिसमकितसुराना
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