Thursday, 6 February 2020

उसे छुप-छुप के देखा था



धरा और गगन को मिलते
क्षितिज पर देखा था
संध्या और सूरज को मिलते
गोधूलि में देखा था
निशा और प्रभात भी मिले थे
भोर होने से पहले
नदी भी मिली सागर से जाकर
सृष्टि के ये खेल निराले
जब-जब भी मैंने देखे
जिसे मैंने चाहा
आत्मा की गहराइयों से
हाँ!
सच
ठीक तभी मैंने
उसे छुप छुप कर देखा था!
इस उम्मीद से
एक पल ही सही मिल सकूँ 
कभी मैं भी उससे,..!

प्रीति सुराना

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