Friday, 27 September 2019

मन आँगन

मन आँगन

फिर से आज भिगोया है, मन आँगन को खुशियों में!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे, जो भी पल थे सुधियों में!!

कितना व्यर्थ बिताया जीवन
अर्थ न खुद को मिल पाया
खुद ही खुद को स्वप्न दिखाए
खुद ही खुद को भरमाया
आज किया है तत्पर खुद को
कुछ सत्य सजाए नयनों में
फिर से आज भिगोया है, मन आँगन को खुशियों में!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे, जो भी पल थे सुधियों में!!

जो बुरा था और मिट सकता था,
अश्कों से सब धो डाला,
भ्रम के जाले झाड़ दिए सब
कुविचारों को मन से निकाला,
आज सजाया है फिर घर को
अब न देना है कभी किराए में,
फिर से आज भिगोया है, मन आँगन को खुशियों में!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे, जो भी पल थे सुधियों में!!

घर जब खुद का अपना है
और अपनों का सपना है,
फिर दखल हो क्यों गैरों का
रखेंगे जैसे भी रखना है,
अपना जीवन अपनों से है
न आना है लगाए-बुझाए में,
फिर से आज भिगोया है, मन आँगन को खुशियों में!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे, जो भी पल थे सुधियों में!!

प्रीति सुराना

1 comment:

  1. सही है, ये खुशियाँ अमिट रहे।
    कई बातें ऐसी होती है जो हमारी ही वजह से टीस देती रहती है।
    केवल सकारात्मक सोच से सब ठीक हो सकता है।
    अच्छा सन्देश देती बेहतरीन रचना।
    पधारें - शून्य पार 

    ReplyDelete