Thursday, 7 February 2019

जिजीविषा

जीवन की जिजीविषा शेष हो
अपनी रगों में कीमो की तेज जलन को सहकर
रोम-रोम को रिक्त होता देख
खुद को ही न पहचान पाने वाली
अनजानी शक्ल में बदलता देखकर भी
अपनी साँसों पर नियंत्रण रखकर
दर्द की पराकाष्ठा तक पहुँचकर भी
जीवन की संभावनाओं के लिए
खुद से लड़ना,..!

दर्द की पराकाष्ठा के बाद
फिर किसी दर्द का न होना,
निष्ठुर पाषाण बनकर भी
टूटकर नींव में,
बिखर रेत बनकर भवन निर्माण में,
चोट देने या चोट खाकर
पिघलकर या तराशे जाने पर
मूर्त हो जाने की तमाम संभावनाओं के साथ
जीवित रहना,...!

न खुद में जिजीविषा
न फिर बनने या बिगड़ने की संभावना
फिर भी
अपनों की संतुष्टि के लिए
अपनों के ही निर्णय पर
अपनों की ही स्वीकृति से
कृत्रिम साँसों के माध्यम से (वेंटिलेटर पर)
जीवन को बिना किसी संभावना के
रोके रखना,..!

जीवन की ये तीन अवस्थाएँ
तीनों से गुजरने के पहले जीवन होता है,
तीनों से गुजरते हुए भी जीवन होता है,
तीनों से गुजर जाने के बाद,...शेष क्या????
निःशब्द हूँ
निरुत्तर हूँ
ऐसे मंजर विचलित करते हैं
मन को,
जीवन को,... ये कैसी नियति?

प्रीति सुराना

3 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ फरवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. अत्यंत मार्मिक रचना,सच ऐसी अवस्था जिसने भोगा वही दर्द जान पायेगा सादर नमन

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  3. हृदय स्पर्शी ।
    हा नियति।

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