Saturday 29 December 2018

तुम संभाल लोगे

ए जिंदगी!
माँ के गर्भ से
जब दुनिया में आई
चलना तो बहुत दूर
पैर जमीन पर रखना भी नहीं आता था,
समय चलता रहा
गोद से उतारकर
माँ ने जमीन पर छोड़ना शरू किया
बचपन के किस्सों में
घुटनों पर चलने से लेकर
पैरों पर चलना सीखने के किस्से भी हिस्से हैं।

पैरों पर चलना
माता-पिता और परिवार ने सिखाया
जिंदगी में ठोकरों ने रुलाया बहुत
फिर समय और परिस्थितियों ने
संभलना सिखाया।

आज जब करती हूँ "आत्ममंथन"
पाती हूँ खुद को अहम के शीर्ष पर
इस वहम के साथ कि जो किया मैंने किया
मैं गिरी, मैं उठी, मैं सम्भली और फिर चल पड़ी।
पर सच ये है कि हमेशा साथ रही
अपनो की दुआएँ, प्रेम और विश्वास
और लक्ष्य था अपनों की खुशियाँ,...।

कुछ दायरे बढ़े सोच के,
और बने बनाए रिश्तों से परे
चुने खुद अपने भी, सपने भी और लक्ष्य भी,
जब दायरे बढ़े, तो रास्ते भी बढ़े,
और रास्ते में मुश्किलें और ठोकरें भी,
आज फिर संभलने की तमाम कोशिशों के बाद,
अहम के साथ-साथ सारे वहम भी टूटने लगे हैं,

दर्द-मर्ज, मन-मान, अर्थ-व्यर्थ,
चरित्र-ईमान, संस्कार-विश्वास,
कर्तव्य-अधिकार, मिलन-विछोह,
अपेक्षा-उपेक्षा, तेरा-मेरा,
आरोप-प्रत्यारोप, टूटना-तोड़ना,
बिखेरना-मिटाना,
इन सारी बातों और परिस्थितियों में
अब मैं
मन से हारने लगी हूँ,
फिर से टूटने लगी हूँ,
फिर से डरने लगी हूँ,
फिर से बिखरने लगी हूँ,..

कहते हैं
सकारात्मक सोच जीवन की दशा बदल देती है
यही सोचकर हर बार
तिनका-तिनका उम्मीद जोड़कर
सपनो का घरोंदा बसाती रही,
जीती रही, मुस्कुराती रही।
उन घरोंदे में प्रेम, विश्वास, समर्पण,
शेष रहे
तो उम्मीदें जीती रहेगी,
हौसले गिरते-संभलते, पर जीते रहेंगे।
लेकिन
सबकुछ समय की आंधी उजाड़ जाए,
तो??

आज
एक बार
खुद को फिर संभाल रही हूँ
भींचकर खुद को खुद की बाहों में,
रोकर अपने ही घुटने पर सिर रखकर,
जुटा रही हूँ हौसला
लड़ रही हूँ खुद से खुद की लड़ाई
पर जो होगा, अच्छा होगा।
और जो मेरा है वो मेरा ही रहेगा,
छूट वो जाएगा जो मेरा था ही नहीं था,...

हर भ्रम से परे
आज भी जीने की एक और कोशिश,
इस उम्मीद के साथ,
कि तुम तो मेरे हो,....
माँ की गोद में लौट जाना नियति नहीं है,
पर लड़खड़ाए जो कदम तो संभाल लेना तुम,..
तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी
"तुम संभाल लोगे"
ये अटूट विश्वास भी तो प्रेम ही है न??

हाँ, मुझे यकीन है कि ये प्रेम ही है,..!!

0 comments:

Post a Comment