Thursday 26 July 2018

"मेरा प्रेम अकेला, नि:शब्द, स्तब्ध"

"मेरा प्रेम
अकेला, नि:शब्द, स्तब्ध"

मेरे मन में
वृक्षों के प्रति बहुत सम्मान है,
हमेशा सोचती हूँ
गहरी जड़ें, फैली शाखाएँ, मजबूत स्तंभ
हरियाली, फूल और फल,...
साथ ही जीवन जीने के लिए प्राणवायु,

ऐसा लगता था मानों
संपूर्ण प्रकृति अपना प्रेम
वृक्षों के माध्यम से उढ़ेल रही,
पर अफसोस होता था
पेड़ के नीचे पौधे छोटे होने के कारण
पनप नहीं पाते,..

मुझे पौधों से प्रेम हो गया
मैं खुद की तुलना पौधों से करने लगी
जो बड़े-बड़े वृक्षों से प्रेम चाहते
पर मिलती थी केवल उपेक्षा,...
फिर वक्त गुजरता गया
वृक्षों के पत्ते पीले पड़ने लगे
शाखाएँ टूटने लगी
स्तम्भ खोखले होने लगे,...

मुझे लगा पौधों को दुख होगा
अपनी छत्रछाया को खोकर
पर बहुत जल्दी ही
पौधे पनपकर वृक्ष बनने लगे
अकेली रह गई मैं
वृक्षों और पौधों की कश्मकश में,...

जिस वृक्ष का सम्मान किया
वो झूठा दंभ लिए
खोखलेपन को संभाले
अब भी खड़ा है
और वो पौधा जिससे प्रेम किया
आज वो वृक्ष से भी बड़ा है,..

और
मेरा प्रेम
अकेला, नि:शब्द, स्तब्ध,
उसी के नीचे
नियति की लीला देखता
चुपचाप पड़ा है,...

प्रीति सुराना

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