मैं बहती ही रही हूं जल सी सदा
पत्थरों ने निभाई अपनी भूमिका
रोकने को रास्ते थे खड़े हर जगह
धाराओं में बंटी पर न बहना रुका
किसी को मुझसे न लगे चोट कोई
नीयत में कभी न आए खोट कोई
जल सी पारदर्शिता रहे मुझमें कायम
मलिनता न हो मुझमें शामिल कोई
चपलता, चंचलता और संजीदगी
नदी सी हमेशा मुझमें कायम रही
बांधने को बांध तत्पर रहे लोग लेकिन
अभियंता ही रहे वो मेरे नियंता नहीं
मैं जल हूँ नदी का बस ये जान लो
हो सके तो फितरत भी पहचान लो
समर्पण है पूंजी और मेरा आत्मबल
मिलूंगी बस सागर से ही मान लो
मेरी राह में जो भी पत्थर बने
फौलादी है इरादे मेरे मान लें
सागर है मंजिल मेरी जिंदगी की
टूटकर भी बहूँगी सभी जान लें।
प्रीति सुराना
बहुत ही सुन्दर सन्देश देती हुई रचना। सादर
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