घुमड़ रहे भावों को कबसे थाम रही हूं
अधरों पर मुस्कानों के सेतु बांध रही हूं
भीतर ही भीतर बींध रहा है दर्द मुझे
हंसकर सहने की सीमाएं लांघ रही हूं
प्रीति सुराना
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घुमड़ रहे भावों को कबसे थाम रही हूं
अधरों पर मुस्कानों के सेतु बांध रही हूं
भीतर ही भीतर बींध रहा है दर्द मुझे
हंसकर सहने की सीमाएं लांघ रही हूं
प्रीति सुराना
Sunday rachna
ReplyDeleteबहुत खूब
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