मन में है भावों की सरिता,मेरी बस उससे पहचान।
गीत लिखूं कैसे मैं कोई ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान।।
भावों को लिखती बुनती हूं, लोगों की सुनती हूं बात।
मन विचलित सा रहता मेरा, बीत गई फिर से इक रात।।
जोड़ तोड़कर कुछ लिखती हूं, ढूंढूं नये शब्दों की खान।
लेखन में जीवन बसता है, लेखन में बसते हैं प्राण।।
मन में है भावों की सरिता,मेरी बस उससे पहचान।
गीत लिखूं कैसे मैं कोई ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान।।
भाव प्रेम या मिलन-विरह के,यादों से आँखों में नीर।
व्यथित सदा रहता है मन ये, कैसे बंधाऊँ मन को धीर।।
सुन भी लूं मैं गीत खुशी के ,मन गाता पीड़ा का गान।
अधर भले ही मुसकाते हैं, धड़कन छेड़े दुख की तान।।
मन में है भावों की सरिता,मेरी बस उससे पहचान।
गीत लिखूं कैसे मैं कोई ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान।।
सुख दुख की गणना कैसे हो, लघु गुरु हो या सुर लय ताल।
गिन गिन मैं कैसे बतलाऊँ, अपने इस जीवन का हाल।।
सीख नहीं पाई अबतक मैं, न कोई विधा न ही विधान।
काव्य जगत में कभी मिलेगा, मेरे इन भावों को मान???
मन में है भावों की सरिता,मेरी बस उससे पहचान।
गीत लिखूं कैसे मैं कोई ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान।।
प्रीति सुराना
बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-12-2016) को मांगे मिले न भीख, जरा चमचई परख ले-; चर्चामंच 2569 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks
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