Friday, 24 June 2016

कुछ अबूझ पहेलियों को बूझते।

कुछ अबूझ पहेलियों को बूझते।

रात बीती याद को ही भूलते।


याद के जिस भी सिरे को था छुआ,

हाथ से देखा सिरा वो छूटते।


घूमता मंजर पतझड़ का नज़र में ,

साख से देखा पत्ता जो टूटते।


देखकर उड़ते हुए परिंदे कभी,

सोचते हम भी गगन को चूमते।


जो पता होते जवाब मुझे सभी,

खुद कभी न सवाल खुद से पूछते।


कुछ नहीं खोया कभी फिर भी कहीं,

खुद रही खुद को यहां मैं ढूंढते।


जो कभी मिल भी गई वो 'प्रीत' तो,

सच न जीवन से कभी फिर जूझते। ,..प्रीति सुराना  

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