Thursday, 19 May 2016

खुशियों के बाजार

चुपके से  मैंने कुछ सपने थे बो डाले,
सोचा था, सपनों के भी इंद्रधनुष सजेंगे।

सुना था ये नानी से एक कहानी में,
सोचा था, परियों से कुछ उपहार मिलेंगे।

मैंने छुटपन में अपना जो भी खोया था,
सोचा था यौवन में सब वापस ले लेंगे।

मालूम न था खुशियों के बाजार नहीं है,
सोचा था, पैसों से खुशियों के पल लेंगे।

प्रीति सुराना

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