महीनों से
जिन अरमानों और ख़्वाहिशों को
नाउम्मीदी के फटे चिथड़े दामन में
पोटली बांधकर
लटका रखा था अलगनी में,...
मन की उस बंद कोठरी में
जहां सूरज की रौशनी
तो क्या
हवा भी
जाने से कतराती है,..
सोचा था
खुदबखुद
दम तोड़ देंगी वो ख्वाहिशें
वो सारे अरमान
हवा और रौशनी के आभाव में,..
पर
तुमने कहर ढाती ठंड से
बचने के लिए
कोठरी में रखी
यादों से बुनी,...
अपनेपन की गरमाहट वाली
वो रंगीन स्वेटर ढूंढने के बहाने
चिटखनी क्या खोली,
जलीभुनी सी हवा और रौशनी भी
तुम्हारे पीछे आ गई,..
और महीनों से बंद कोठरी में
उम्मीदों की रौशनी और हवा क्या पहुंची
चिथड़ों में लिपटी
ख्वाहिशों और अरमानों को
फिर से सांसें मिल गई,...
उफ़्फ़्फ़!!!
जाते जाते तुम ये क्या कर गए
"पुराने साल"
चिंगारी को हवा दे गए,..
उम्मीदें जगा गए,...
कि
क्या हुआ
जो ये साल बीत गया कुछ मायूस सा,..
साल ही तो बीता है,..
"जिंदगी अभी बाकी है मेरे दोस्त"
अलविदा जाने वाले साल
और शुक्रिया भी
जो तुमने जाते जाते
दिया मौका कि कर सकूँ
स्वागत उम्मीदों भरे नववर्ष का,...
"सुस्वागतम् नववर्ष" ,..प्रीति सुराना
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