Sunday, 10 February 2013

असर देखकर रो देती हूं


टूटे हुए फूल देखकर रो देती हूं

उजडें हुए घर देखकर रो देती हूं

मैंने तबाही के कई नजारे है देखे

परिंदों के टूटे पर देखकर रो देती हूं

रोती हू हर आह पर,हर कराह पर

हर दर्द और गम देखकर रो देती हूं

चाहती हूं किसी पर तो असर हो

पर अपनो पे असर देखकर रो देती हूं,....प्रीत सुराना

3 comments:

  1. अपनों पर असर देख रो देती हूँ ....
    चाहती तो हूँ किसी पर असर हो !
    अपनों के आगे सब कमजोर हो जाते हैं . एक द्वंद्व है कविता में !

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  2. ्बहुत सुन्दर भाव संजोये हैं।

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