Monday 6 February 2012

"मानव विमर्श".


कभी देखा है
बिना बीज के
जमीन से कोपलों को फूटते,
धरती और गगन के
मिलाप के बिना
क्षितिज का नजारा,
धूप और बारिश के
संगम के बिना
सतरंगी इंद्रधनुष,
रात और सुबह की
संधि के बिना
प्रभात की किरण,
दिन और रात के
संसर्ग के बिना
सुहानी साझ,
लहरों का चांद से
आकर्षित हुए बिना
ज्वार भाटे का उठना,
स्त्री और पुरूष के
समागम के बिना
नई संतति को जन्म लेते,

कभी सुना है 
यह विमर्श कि
जमीन और बीज में,
महान कौन?
धरती और आकाश में 
क्षेष्ठ कौन?
धूप या बारिश में
जरूरी कौन?
रात और दिन में
उपयोगी कौन?
लहरों और चांदनी में 
सुंदर कौन?

फिर
स्त्री और पुरूष
की तुलना क्यों?
क्यों होते हैं 
ये स्त्री विमर्श?
ये पुरूष विमर्श?

जब लहरें,चांदनी ज्वार-भाटा,
धरती,आकाश,क्षितिज कोपलें,
रात दिन प्रभात और संध्या 
धूप बारिश और इंद्रधनुष
सब कुछ प्रकृति की अद्भूत कृतियां हैं
सबका अपना अस्तित्व है
महत्व है 
उपयोगिता है

तो स्त्री और पुरूष
जो नवजीवन के सृजनकर्ता है
इन अनुपम कृतियों के साथ
यह भेदभाव क्यों
अन्याय क्यों
हम मानव होकर मानवीयता से परे क्यों हैं
कब करेंगे हम
स्त्री विमर्श पुरूष विमर्श भूलकर
"मानव विमर्श".......प्रीति

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