मैं
बार बार,
टूटकर,
बार बार जुड़ने वाली,
एक ऐसी चट्टान हूं,
जो हर बार जुड़ने से पहले,
अपने भीतर,
कुछ नया,
समेट लेती है,
और
हर बार
जन्म देती है,
सृष्टि की कई,
नई संरचनाओं को,
मै
चाहती हूं,
तुम मुझे यूंही,
फिर-फिर,
तोड़ते रहो,
और
मै यूंही,
बार-बार,
जुड़ती रहूं,
और
गढ़ती रहूं,
हर बार
सृष्टि में कुछ नया,
जो सृष्टि को सतत रखे,
क्यूंकि
"मैं स्त्री हूं"
यही मेरी प्रकृति है,
यही मेरी नियती है,
और
शायद यही मेरी सार्थकता है.......प्रीति सुराना
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