सच!
इस तरह जुड़ी हूँ तुमसे
कि रूह का रूह से रूह तक नाता है,..
शायद इसीलिए
एक अजीब सी बेचैनी हो ही जाती है मुझे,
मानो जो कुछ भी घट रहा है
सही नहीं है,...
तुमको होते देखती हूँ
साजिशों का शिकार
वो भी उन लोगों से
जिन पर अथाह विश्वास करते हो तुम,..
जाने क्यों अकसर मिल ही जाता है
अन्तस से कोई संकेत,
तब मन चाहता है
कि हाथ पकड़कर रोक लूँ,...
और कहूँ
रुक जाओ
ये सही नहीं है,...
पर रोक लेती हूँ खुद को
क्योंकि कोई पुख़्ता कारण नहीं होता,
न कोई सबूत,
न कोई गवाह,
बस होती है तो अनुभूति,...
जिस पर विश्वास दिलाना
मुश्किल होता है
और मैं उलझकर रह जाती हूँ
नई उलझनों में,..
कैसे समझाऊँ तुम्हें
रूह के रिश्ते रूह को महसूस का लेते हैं,
सुख-दुख, भले-बुरे, होनी-अनहोनी,
सही-गलत, प्रेम-गुस्सा, फिक्र-परवाह,
सब कुछ,..
बस कुछ कहा होता है
कुछ अनकहा रह जाता है,..
सुनो!
तुम समझते हो न मुझे
तो समझना हमारे रिश्ते में बसे
अनुभूतियों के ताने-बाने भी,..
जिनके उलझने से बढ़ जाती है उलझनें हमारी भी,..
तुम्हारे लिए
मेरे अंतस में उठती अनुभूतियाँ भी तो
प्रेम ही है न,...!
प्रीति सुराना
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