मैं
बह रही हूँ
अनवरत
नदी सी
रास्ते में जो मिला
सुख-दुख
आँसू-हँसी
अच्छा-बुरा
कम-ज्यादा
क्योंकि
यात्रा का निर्धारित
अंतिम पड़ाव सागर ही है,...!
सुनो!
याद है न
तुमको तुम्हारा सागर होना?
फिर
लाख अवगुण हो नदी में
सागर नहीं नकारता
नदी के अस्तित्व को
खुद में समाहित करने से
क्योंकि
वो जानता है
सागर की उदारता
नदी के समर्पण के बिना संभव भी तो नहीं,... !
प्रीति सुराना
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