कलम ही छोड़ दी मैंने,...!
प्रेम लिखूँ कैसे
रुदन सांसों में घुल रहा हो जब
विरह सहूँ कैसे
कोई अपना बिछुड़ रहा हो जब
माहौल देखकर फरेबी
कलम ही छोड़ दी मैंने
जुनून सा था ये
नया कुछ करना है जमाने में
जुटी हुई थी मैं तो
जीवन की नई राहें बनाने में
मगन रहती थी मकसद में
लगन वो तोड़ दी मैंने
उठती ही तरंगे भी
खुशहाल वतन के सपने की
रुख नाराज़ कुदरत का
कोशिश की बहुत मनाने की
हिम्मत जो रगों में बहती थी
लहर भी मोड़ दी मैनें
सजाया था घरौंदा एक
एक अनोखे ही अंदाज का
खाका एक खींचा था
उन्नत समृद्ध समाज का
प्रकृति पर उम्मीदों से लबालब
गागर फोड़ दी मैंने
लहर भी मोड़ दी मैनें
लगन वो तोड़ दी मैंने
दवातें फोड़ दी मैंने
कलम ही छोड़ दी मैंने,...!
प्रीति समकित सुराना
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