हाँ सशक्त हूँ मैं,
मुझे सक्षम होने दो,
अबला न कहो मुझे,
बस डर कम होने दो,
मुझमें हुनर है सृजन का
और सृष्टि मेरे आँचल में,..,
सारे कर्तव्य सिर माथे पर
लेकिन
अधिकार भी पुरुषों सम होने दो!
नारी सशक्तिकरण या सक्ष्मीकरण की बात करें तो मैं यहीं आकर रुक जाती हूँ कि हम सब कुछ पुरुषों की तरह ही पाना चाहती हैं तो वो पुरुष होकर जितना संतुष्ट हैं,अगर हम स्त्री होकर उतने संतुष्ट हो जाएं तो हम सशक्त तो पहले ही हैं समर्थ भी हो जाएंगे।
स्त्री और स्त्रीत्व
बार-बार
हमारे स्त्री होने को सत्यापित करके
यूँ भी हमें
मान लिया गया है
कुछ अलग,... असाधारण,... अनूठा!
और
कुछ अलग, असाधारण, अनूठा होकर
लीक से हट कर
अपनी पहचान को कायम रखते हुए,..
सृष्टि की निरन्तरता का
सबसे बड़ा दायित्व निभाते हुए
आभार सृष्टि और सृष्टि के रचयिता का
जिसने
हमारे होने को सहजता से स्वीकारते हुए
बिता दी सदियाँ
हमारे होने का उत्सव मनाते हुए,..
सच!
गौरवान्वित हैं
स्त्री भी, स्त्रीत्व को निभाते हुए,..!
लेकिन बात यहाँ केवल मेरी सोच की नहीं है बल्कि सम्पूर्ण नारी जाति की स्तिथि और "जितने मुँह उतनी बातें" को चरितार्थ करते हुए समाज का बहुमुखी स्वरुप की है। इसलिए सबसे पहले ये सोचा जाए कि तन, मन, धन और जन इन चारों परिपेक्ष्य में नारी की स्थिति क्या है?
तन से नाजुक है लेकिन सृष्टि ने सृजन का सबसे बड़ा दायित्व नारी को दिया है।
मन से कोमल है लेकिन इतिहास गवाह है कि बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना करने का साहस दिखाने में नारी ने कभी हिम्मत नहीं हारी।
धन से निर्भर है लेकिन आत्मनिर्भरता की बात आए तो पूरा परिवार नारी के इर्दगिर्द चलता है और अवसर मिले तो चौसठ कलाओं से युक्त नारी सब पर भारी।
जन यानि लोगों की बातों से सबसे ज्यादा प्रभावित नारी होती है लेकिन नारी ही नारी के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी है यह भी कटु सत्य है।
स्त्री तुम सृजक
माना कि हम महिला दिवस मनाकर खुश होते हैं,... पर सच ये भी है कि समीकरण बदल गए हैं? अकसर लोग हमेशा नारी की महानता के लिए ये सोच रखते आए हैं जो सच भी है,... क्योंकि स्त्री सृजक है,...
नारी घर की स्वामिनी, नारी घर की लाज।
नारी ने कल को जना,नारी ने ही आज।।
धीरे-धीरे लोगो की सोच बदली नारी मुक्ति जैसी क्रान्तिकारी सोच और बदलाव ने समाज में कई आमूलचूल परिवर्तन किये,.. कई तरह से सोच और सोच के साथ नारी और पुरुष के समीकरण बदले, नारी के अस्तित्व ने ऋण (-) से बराबर (=) और फिर धन (+) का प्रतिनिधित्व भी किया,..
लेकिन एक पहलू ये भी है कि समीकरण कितने भी बदल जाएं,... मापदंड कितने भी परिवर्तित हो जाएं... समय का चक्र कितना भी आधुनिकता का लिबास ओढ़ ले,... स्त्री और पुरूष चाहे कितना भी शत्रुता, प्रतिद्वंदिता, विरोध और असहिष्णुता का प्रदर्शन करे,... प्राकृतिक नैसर्गिक और शाश्वत सत्य यही है कि ये शत्रु नही एकदूसरे का पर्याय हैं,...।
माना नारी ने जना, सकल जगत का वंश।
पर न भूलो हर वंश में, नर का भी है अंश।।
मैं यह मानती हूँ यदि स्वीकार कर ली जाए एक दूसरे की पूरकता तो संघर्ष का कोई कारण ही नहीं है,.. । क्योंकि स्त्री और पुरुष दिन और रात की तरह एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं तन मन और आत्मा से तो क्या हुआ? दिन और रात कभी एक दूसरे के बिना कालचक्र को पूरा कर पाए है,,...? स्त्री और पुरूष रच पाए है कभी अकेले किसी नई संतति को,.....?
तो फिर ये कोई संघर्ष क्यों? हर बार स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का माप-तोल क्यों? महत्व का आकलन और अस्तित्व पर प्रश्निन्ह क्यों? क्यूँ हम स्त्री और पुरूष के संकुचित संबोधनो को परे रख कर इंसान और इंसानियत पर मुद्दे नहीं उठाते??
एक और सवाल जो अक्सर मेरे मन में उठता है की हर बार ऐसा ही क्यूँ सोचा जाए,... कि "हर स्त्री के भीतर सीता का अंश होता है,.. और हर पुरुष के भीतर कहीं रावण सोया रहता है,.." कभी कोई क्यूं नहीं सोचता,..कि हर स्त्री में कहीं सूर्पनखा का अंश होता है,... और हर पुरुष के भीतर कहीं राम/लक्ष्मण रहता है ..."
मैं खुद एक नारी होने के नाते खुद से कई बार ये सवाल पूछती हूँ कि कभी अबला और कभी,.. देवी बनकर,.. या फिर पुरूषों को ही दोष देकर सहानुभूति बटोरने या अपनी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जरुरत क्यों है? हम खुद ही अपने लिये कई ऐसे पैमाने और दायरे तय करते हैं, .. जो स्त्री की पुरुषों से तुलना किये जाने को मजबूर करता है जिससे हमें बाहर निकलना चाहिए,..। पुरुष को हमेशा ही शक की नज़र से देखने की बजाय सोच बदलनी चाहिए,.. क्योंकि कोई भी व्यक्ति केवल अच्छा या केवल बुरा नही होता,.. ये बात बिल्कुल सही है। और फिर हर बार हर बात को स्त्री और पुरुष के संदर्भ में वर्गीकृत किया जाए या हर बार स्त्री पृरुष को विमर्श का विषय बनाया जाए जरूरी तो नहीं,..? मैं और आप अपनी सोच के लिए स्वतंत्र हैं,.. पर काश सबको ये सही लगे कि,..
नारी की ही जय न हो, हो नर का भी मान।
जग में जनक जननी का,मान हो एक समान ।।
स्त्री विमर्श हो तो एक और महत्वपूर्ण सवाल बार-बार उठता है,.. "क्या वाकई ब्रह्माण्ड को समझना आसान, पर महिला खुद ही एक रहस्य है?"
कुछ समय पहले ही में हमने एक महान वैज्ञानिक प्रोफेसर स्टीफ़न हाॅकिंग को खो दिया जो कि ब्रह्माण्ड की खोज में लगे हुए थे। स्टीफन हॉकिंग ने ब्लैक होल और बिग बैंग सिद्धांत को समझने में अहम योगदान दिया। उन्होंने दो विवाह किए। उस आधार पर नारी को लेकर उनका एक कथन अखबारों में प्रमुखता से छाया हुआ है कि *ब्रह्माण्ड को समझना आसान, पर महिला खुद ही एक रहस्य है।* कमोबेश इसी तरह की और भी बातें कई लोग अपने हिसाब से कह चुके हैं जो कि उनके अपने व्यक्तिगत अनुभव रहे होंगे। क्या आप को भी लगता है कि स्त्रियों को समझना इतना कठिन है?
आश्चर्य की बात नहीं कि आज स्त्री वर्ग खुद विमर्श कर रहा है कि हर बार इस तरह की बातों का सामना क्यों करना पड़ता है?
सबके अपने मत सबकी अपनी सोच होती है तो सोचा आज मैं भी सोचूं इस विषय पर। जितना सोच पाई मैं उसका सार यही निकला कि *स्त्री हमेशा से प्रकृति, संस्कृति, परिस्थिति, नियति, अनुभूति, अभिव्यक्ति जैसी अनेकानेक स्त्रीलिंग वाली बातों से प्रभावित है जिसपर गौर किया जाना चाहिए।*
स्त्री की प्रकृति संवेदनशील है जो हर छोटी से छोटी बात से प्रभावित होती है।
अब तक संस्कृति ने स्त्री को बहुत हद तक प्रतिबंधित रखा। भारतीय संस्कृति की बात करें तो देवी से दानवी तक, अबला से सबला तक, बेचारी से वीरांगना तक अनेकानेक रूपों में वर्गीकृत किया गया है।
रही बात परिस्थिति की तो स्त्री को तन-मन-धन के अनुसार कभी सौंदर्य ने छला, कभी पैसों की जरूरत और लालच ने तो कभी प्रेम और रिश्तों ने।
स्त्री की नियति है कि वह माँ है और मातृत्व के इस गौरव के साथ साथ अनेकानेक दायित्वों का निर्वहन करती हुई भी पुरुष के बिना अपूर्ण है क्योंकि मातृत्व का गौरव बिना पुरुष के संसर्ग के संभव नहीं है।
अनुभूति के लिहाज से स्त्री को एक अनूठी संरचना माना जाता है जो सृष्टि को चलाने में सहायक है।
अभिव्यक्ति के परिदृश्य में शारीरिक संरचना के सौंदर्य और गुणदोष सर्व विदित हैं।
स्त्री को पुरुष समझा या नहीं, स्त्री पुरुष के लिए रहस्य है, बला है, अबला है, प्रेरणा है या जो कुछ भी है,..।
एक सवाल हमेशा मेरे मन में उठता है कि क्या खुद स्त्री अपनी क्षमताओं और सीमाओं को या अपनी प्रकृति और नियति को समझ पाई है?
आज स्त्री को पुरुष क्या समझता है ये उनके अनुभवों की कहानी उनकी जुबानी हो सकती है पर सोचने का विषय ये है कि क्या एक स्त्री दूसरी स्त्री को समझती है,... ?
स्त्री की स्त्री से प्रतिस्पर्धा, स्त्री का सफलता के लिए स्त्री का हाथ थामने की बजाय पुरुष का सहारा लेने की प्रवृति, स्त्री के अंदर कपट या मायाचार की प्रबलता, स्त्रीत्व और स्त्री सौंदर्य का दुरुपयोग जिसे शास्त्रों में त्रियाचरित्र कहा गया है,.. ये सभी कारक वो कमज़ोर तथ्य है जो स्त्री और पुरुष की तुलना में स्त्री को कमतर आंके जाने का कारण हैं।
विचारणीय प्रश्नों में यह पक्ष निष्पक्ष होकर सोचा जाना चाहिए कि शास्त्रों में क्यों लिखा गया है कि *स्त्री ही स्त्री की प्रथम शत्रु है।* जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण समाज के घर-घर और दर-दर में मिल जाएंगे। कैकेयी, मंदोदरी से आधुनिक स्त्री की व्यथा और कथा ही प्रमाणिकता के लिए पर्याप्त है,...जरूरत केवल खुद में झांकने की है।
रामचरित मानस में रावण के द्वारा मंदोदरी को कहे गए इस कथन पर विचार अनिवार्य है:-
*“नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं।*
*अवगुन आठ सदा उर रहहीं।*
*साहस अनृत चपलता माया।*
*भय अविवेक असौच अदाया।“*
पुरुष ने जो उपमाएं सदा से स्त्री को दी है उसके लिए स्त्री स्वयं जिम्मेदार है। आज जरूरत कौन क्या सोचता है के दायरे से बाहर आकर हम क्या हैं इसे सिद्ध करने की है जो अपनी मानसिकता के दायरे को बढ़ाए बिना या स्त्री-पुरुष विमर्श से बाहर निकल कर *मानवतावादी विमर्श, सहयोग, सम्मान, सामंजस्य से ही संभव है।*
एक और जरूरी बात जिससे बचना चाहिए कि एक पक्ष में हम ही शास्त्रोक्तियों का उदाहरण देकर दूसरे पक्ष में उसे अमान्य घोषित करते हैं *जैसे शास्त्रकार भी पुरुष ही थे आदि* ,.. आखिर ये कब तक? इसीलिए मैंने स्त्री या पुरुष विरोधी नहीं बल्कि आत्मावलोकन का पक्ष रखा कि जो है वो क्यों है? क्या हम इसका खंडन करने में समर्थ हैं? यदि हाँ! तो सदियों की बेड़ियाँ तोड़ने का साहस वीरों और वीरांगनाओं ने कर दिखाया होता।
आज आत्मावलोकन के साथ-साथ केवल विमर्श ही नहीं बल्कि कुछ कर दिखाने का युग है और हम सौभाग्यशाली हैं कि आधुनिकीकरण के दौर में जन्में हैं तो आइए इसका सदुपयोग करें। और सच ये भी तो है कि स्त्री को खुद को साबित करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि स्त्री तो जन्मसिद्ध रचनाकार है,..
*जन्मसिद्ध रचनाकार*
सुनो!!
रचती हूँ मैं
हर परिस्थिति में
रोज कुछ नया,..
रचना
मेरी नियति ही नही
बल्कि मेरे लिए
प्रकृति का दिया
चमत्कारी उपहार भी है,..
अपने अंश से वंश को रचने की योग्यता
जब नियति ने दी है मुझे
तब अपने भावों को
शब्दों में रचना भी
मेरा अधिकार है गुनाह नही,..।
हाँ!
स्त्री रूप में जन्म देकर
स्वयं
सृष्टि के नियंता ने
बना दिया मुझे
जन्मसिद्ध रचनाकार !!!
इतने सारे गुणों के बाद भी अक्सर लोगों को कहते सुना है कि "महिलाएँ कमजोर, बीमार और आश्रित होती हैं।"
*अपनी परिस्थितियों के लिए महिलाएँ खुद कितनी जिम्मेदार?*
आजकल यह विषय बहुत ज्यादा चर्चा में है और साथ ही जिम्मेदारी पर उठा सवाल भी। सबके अपने विचार सबके अपनी सोच। इसी कड़ी में मैं भी शामिल हूँ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए अपना विचार सबके सक्षम रख रही हूँ।
सबसे पहले बात करते हैं स्वास्थ्य समस्याओं के प्रकार पर। स्वास्थ्य समस्याएँ यानि बीमारियाँ केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती हैं। और मैंने अपने आसपास शारीरिक से ज्यादा मानसिक बीमारियों से जूझते देखा है।
स्वास्थ्य के प्रकार के बाद बात करें महिलाओं के प्रकार की। जानती हूं मेरी यह बात थोड़ी अजीब लगेगी सबको पर सच ये बात भी बहुत मायने रखती है । अतः महिलाओं को इन श्रेणियों के आधार पर वर्गीकृत किया गया ।
शिक्षित/अशिक्षित
निर्धन/मधमवर्गीय/समृद्ध
गृहणी/ कामकाजी
किसी भी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर असर होता है शारीरिक क्षमताओं का मानसिक और आर्थिक स्तर का,.. । पर अभी हम बात कर रहे महिलाओं के स्वास्थ्य की और इसी बात के लिए मैंने परिस्थितियों का अध्य्यन किया जिसमें महिलाओं की सोच, शिक्षा, पारिवारिक माहौल, आर्थिक स्थिति का स्वास्थ्य पर प्रभाव प्रमुख मुद्दा था। उसी आधार पर महिलाओं को बारह श्रेणियों में रखकर शारीरिक और मानसिक रोगों के लिए कौन जिम्मेदार ये जानने की कोशिश की। आइये निष्कर्ष पर एक नज़र डालें।
1) निर्धन अशिक्षित गृहणी - इस वर्ग की महिलाएं पैसे के आभाव में मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेलती हैं और परिवार के भरण पोषण का पहले ध्यान रखने की विवशता में कुपोषण का शिकार होती हैं। नशे के सर्वाधिक आदी इस वर्ग की महिलाऐं शारीरिक शोषण से भी मुक्त नहीं हो पाती। जिसकी वजह से शारीरिक और मानसिक बीमारियों से जूझती हैं।
2) समृद्ध अशिक्षित गृहणी - आर्थिक स्थिति अच्छी होने की वजह से इस वर्ग की महिलाऐं अकसर शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होती हैं किन्तु अशिक्षित होने के कारण आधुनिक परिवेश में सामन्जस्य न बैठा पाने के कारण मानसिक रूप से बीमार रहती हैं जिसके लिए वो खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि चाहे तो उपलब्ध साधनो का सदुपयोग कर प्रौढ़ शिक्षा का हिस्सा बनकर स्वयं को अवसाद जैसी बीमारियों से बचा सकती हैं। घर के कामों के साथ सामाजिक कार्यों का हिस्सा बनकर व्यक्तिव का विकास कर सकती हैं।
3) मध्यमवर्गीय अशिक्षित गृहणी - मध्यमवर्गीय महिलाएं भी अशिक्षित होने की वजह से मानसिक रूप से कमजोर होती हैं जो शारीरिक व्याधियों को बढ़ावा देता है।ये माहिलाएं भी अपनी स्थिति थोड़े से प्रयासों से सुधार सकती हैं।
4) निर्धन शिक्षित गृहणी - आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद यह शिक्षित महिला वर्ग स्वछता और स्वास्थ्य का ध्यान रखता है, धन के आभाव की वजह से मानसिक तनाव और परिस्थितिजन्य स्वास्थ्य समस्याओं से जूझने के लिए सरकारी सुविधाओं और जानकारी का सदुपयोग कर जीवनस्तर सुधारने में लगा रहता है।
5) समृद्ध शिक्षित गृहणी - यह वर्ग सभी तरह की समस्याओं से निपटने के लिए सक्षम होता है, जानकारियों का उपयोग सही दिशा में करे तो इस वर्ग की महिलाएं अगर स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न करें तो खुद को स्वस्थ रखने में समर्थ हैं।
6) मध्यमवर्गीय शिक्षित गृहणी - यह वर्ग भी शिक्षा और समय का सदुपयोग करते हुए जीवन यापन करें तो शारीरिक और मानसिक रोगों से दूर रह सकती हैं। आर्थिक सहायता के लिए आजकल अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं जो बीमारियों के इलाज में मदद करती हैं। जरुरत है केवल जागरूक रहने की।
7) निर्धन अशिक्षित कामकाजी महिला - ये महिलाऐं अकसर लोगों के घरों में काम करती हैं या मजदूरी करती हैं समय के अभाव में स्वस्थ के प्रति लापरवाह होती हैं, यह वर्ग थकान मिटाने और संगत से प्रभावित होकर सबसे ज्यादा नशे की आदी होती हैं और शारीरिक शोषण का भी शिकार होती हैं। यौन रोगों का संक्रमण उस वर्ग में सबसे ज्यादा पाया गया।
8) समृद्ध अशिक्षित कामकाजी महिला- यह वर्ग प्रायः सामाजिक कार्यों में ज्यादा संलग्न पाया गया, अकसर देखा गया समाज सेवा के नाम पर अलग अलग समूहों से जुड़ी ये महिलाएं ऐसे क्षेत्रों से जुडी होती हैं जिससे खुद भी जागरूक रहे और जरूरतमंदों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए मदद करती रहें पर इनसे बातचीत करते हुए महसूस होता है की इनमे आंतरिक रिक्तता और मानसिक अवसाद मौजूद होता है। सक्षम होते हुए ये खुद के प्रति लापरवाह होकर दिखावे की जिंदगी जीती हैं। इस वर्ग में एल्कोहॉलिक महिलाओं का अनुपात भी अधिक पाया गया।
9) मध्यमवर्गीय अशिक्षित कामकाजी महिला- ये वर्ग भी छोटे मोटे कार्यों में संलग्न रहते हुए आर्थिक स्थिति सुधारने में प्रयासरत रहते हुए अवसादग्रस्त पाया गया क्योंकि शिक्षा के आभाव में अकसर गृहद्योगों में संलग्न यह वर्ग मेहनत के अनुरूप फल न मिलने के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार रहता है पर सही दिशानिर्देश से यह वर्ग स्वास्थ्य समस्याओं से बच सकता है।
10) निर्धन शिक्षित कामकाजी महिला - ये महिलाएं सबसे ज्यादा जागरूक पाई गई स्वास्थ्य के प्रति। वर्तमान में चल रहे महिला सशक्तिकरण और सक्षमीकरण के साथ महिला जागरूकता मुहीम का सबसे बड़ा हिस्सा यही वर्ग है । सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों और सुविधाओं जैसे मुफ्त इलाज और सेनेटरी पैड्स वितरण आदि का सर्वाधिक लाभ उठती हैं और लोगो तक जानकारियों का संचार भी करती हैं।
11) समृद्ध शिक्षित कामकाजी महिला - यह वर्ग स्टेटस मेन्टेन करने के चक्कर में इस तरह उलझा हुआ है की सबकुछ होते हुए भी अकेलापन और अवसाद का शिकार है । बीमारियों का इलाज करवाने में सक्षम होते हुए भी समयाभाव ने इस वर्ग को मनोरोगी बना दिया है। यदि समय काम और स्वास्थ्य के बीच सामंजस्य बना सके तो यह वर्ग सबसे सुरक्षित रह सकता है।
12) मध्यमवर्गीय शिक्षित कामकाजी महिला- आर्थिक स्तर सुधारने की मुहीम में जुटा यह वर्ग अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक श्रम के कारण अधिकतम समस्याओं का शिकार है। ये अकसर बीमारियों को बढ़ने के बाद इलाज के लिए पहुचती हैं और यही लापरवाही समस्याओं को इतना बढ़ा देती हैं कि न ठीक से इलाज करवा पाती न सह पाती और डिप्रेशन में जीती हैं।
पूरे विवरण पर नज़र डालने के बाद मुझे तो यही महसूस हुआ की महिलाएं अपने स्वास्थ्य के लिए काफी हद तक खुद जिम्मेदार हैं । शिक्षा एक अति आवश्यक तत्व है । डिग्रीयों से ज्यादा जरुरत व्यवहारिक शिक्षा की है जो आजकल अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा प्रचारित प्रसारित की जा रही है। चिकित्सा संबंधी जानकारियों और सुविधाओं की भी समाज में कोई कमी नहीं है । भागमभाग की जिंदगी में सबसे ज्यादा मायने रखता है समय के साथ सामन्जस्य बैठाते हुए अपना ख्याल खुद रखें । सामाजिक , पारिवारिक और आर्थिक समस्याओं से रुबरु हर कोई होता है पर स्त्री-पुरुष समानाधिकार की ओर बढ़ते कालचक्र में ये कारक गौण लगते हैं । इसलिए परिस्थितियों का रोना रोने से बेहतर है,..
*खुद को मजबूत बनाना और हर हाल में खुश रहते हुए सबसे अधिक फैले अवसाद नामक रोग से खुद को बचाना ।
*डाइट फूड के फैशन में न पड़ते हुए पौष्टिक आहार लेना ।
*संस्थाओं द्वारा दी जा रही स्वास्थय संबंधी जानकारियों को गंभीरता से लेते हुए निर्देशों का पालन करना।
*स्वच्छ और संयमित रहते हुए नशे और असुरक्षित यौन संबंधो से दृढ़तापूर्वक दूर रहना।
*सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा मिल रही स्वास्थ्य सुविधाओं की पर्याप्त जानकारी रखना और जरुरत पर उपयोग करना ।
* आत्मनिर्भरता और व्यवहरिक शिक्षा की अनिवार्यता का महत्त्व समझना।
*** सबसे जरुरी बात सबकुछ जानते समझते हुए खुद को लापरवाही से रोकना ।
महिला हो या पुरुष अपने स्वयं के लिए सजग रहना स्वयं की जिम्मेदारी है (अवांछित परिस्थितियां या अपवाद की बात और है) किंतु शरीर हमारा है, मन हमारा है, जीवन हमारा है तो इसे संभालने का दायित्व भी हमारा ही है । ये विचार पूर्णतः मेरे व्यक्तिगत विचार हैं सब सहमत हो ये अनिवार्य नहीं और जो असहमत हैं उन्हें किसी बात से ठेस पंहुचे या आपत्ति हो तो क्षमाप्रार्थी हूं,....
(विशेष:- मेरी नज़र में गृहणी का कार्यक्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है यहाँ कामकाजी महिलाओं से मेरा तात्पर्य गृहकार्यों के अतिरिक्त कोई अन्य कार्यक्षेत्र से है,....)
एक और निवेदन की स्त्री-पुरुष विमर्श से बहार निकल कर मानव-विमर्श की तरफ बढ़ें,..आज स्त्री पुरुष की तुलना से ज्यादा जरुरत है समाज में "मानव-विमर्श" की,...!
कभी देखा है
बिना बीज के
जमीन से कोपलों को फूटते,
धरती और गगन के
मिलाप के बिना
क्षितिज का नजारा,
धूप और बारिश के
संगम के बिना
सतरंगी इंद्रधनुष,
रात और सुबह की
संधि के बिना
प्रभात की किरण,
दिन और रात के
संसर्ग के बिना
सुहानी साझ,
लहरों का चांद से
आकर्षित हुए बिना
ज्वार भाटे का उठना,
स्त्री और पुरूष के
समागम के बिना
नई संतति को जन्म लेते,
कभी सुना है
यह विमर्श कि
जमीन और बीज में,
महान कौन?
धरती और आकाश में
क्षेष्ठ कौन?
धूप या बारिश में
जरूरी कौन?
रात और दिन में
उपयोगी कौन?
लहरों और चांदनी में
सुंदर कौन?
फिर
स्त्री और पुरूष
की तुलना क्यों?
क्यों होते हैं
ये स्त्री विमर्श?
ये पुरूष विमर्श?
जब लहरें,चांदनी ज्वार-भाटा,
धरती,आकाश,क्षितिज कोपलें,
रात दिन प्रभात और संध्या
धूप बारिश और इंद्रधनुष
सब कुछ प्रकृति की अद्भूत कृतियां हैं
सबका अपना अस्तित्व है
महत्व है
उपयोगिता है
तो स्त्री और पुरूष
जो नवजीवन के सृजनकर्ता है
इन अनुपम कृतियों के साथ
यह भेदभाव क्यों
अन्याय क्यों
हम मानव होकर मानवीयता से परे क्यों हैं
कब करेंगे हम
स्त्री विमर्श पुरूष विमर्श भूलकर
"मानव विमर्श".......!
संस्थापक
अन्तरा-शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ. प्रीति सुराना
बहुत सुन्दर
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