Tuesday, 4 February 2020

मंज़िल की तलब

कांटे चाहते थे
मैं डरकर थम जाऊं
कभी सोचा नहीं होगा कांटों ने
कि लहुलुहान कदम भी
मंज़िल की तलब रखते हैं
पीर सहकर भी अरमान
जीने की ललक रखते हैं
आज
मुझे पहुँचा देख
रास्तों के दूसरे छोर पर
कांटे भी पंखुरियों में
मुँह छुपाकर रखते हैं
क्योंकि कमजोर पैर मेरे
हर राह पर 
हौसले से कदम रखते हैं,..!

प्रीति सुराना

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