आगाज़
मैं चाहती हूँ
अब भी कुछ सार्थक कर गुजारना,
तमाम संसाधनों की कमी के बाद भी,
अनेक असुविधाओं के बाद भी,
सारी रुकावटों के बाद भी,
क्योंकि
मेरा कुछ करके गुजारना
मेरे गुजर जाने के बाद भी
जिन्दा रख सकेगा,
उन तमाम पीड़िताओं के भीतर मुझे
जो कुछ करना तो चाहती थी
पर कर गुजरने का हौसला न जुटा सकी।
शायद मेरी एक आहुति
एक अश्वमेध यज्ञ का आगाज़ बन जाए
जो नाश कर सके
दुनिया से स्त्री पर उंगली उठा कर
सद्चरित्र बनने वाले दुःशासनों की जमात।
क्रांति का सूत्रधार किसी को तो बनना होगा
तो मैं क्यों नहीं?
सुनो स्त्रियों!!!
काश हम सब
अपनी-अपनी लाज को बचाने की क्रांति के लिए
रखें ये मजबूत इरादा
तो हो सकता है अपने हिस्से की ठोस धरती के साथ-साथ
जीत लें अपने हिस्से का आसमान भी और उड़ान भी।
उठो! जागो! अब वक्त है क्रांति का!
प्रीति सुराना
0 comments:
Post a Comment