यात्रा
सतत यात्रा में हूँ
सांसें जब तक चलेंगी
ये यात्रा चलती रहेगी
जब भी किसी पड़ाव पर
पहुँचती हूँ,
ठहरती हूँ,
आत्मिक संतुष्टि तो मिलती ही है
साथ ही
पैरों के छाले
मन के फाले
चलते रहने की इच्छाशक्ति
प्रेरित करती है
एक बार लौटूं
उस जगह पर जहाँ से चली थी
जहाँ कभी ठोकरें लगी
कभी काँटे चुभे
कभी फूलों ने कदम चूमें
लौट कर चुन लेना चाहती हूँ
स्मृतियों के अवशेष
और बुहार दूँगी पथ
हटा दूँगी पत्थर और काँटे
ताकि मेरे बाद आने वाले
बच सकें ठोकरों और चुभन से
पर
समय और जीवन गतिमान है
कहाँ लौट पाते हैं हम चाहकर भी
लेकिन एक वादा है
आज खुद से
बुहारती चलूँगी अब
अपने पथ के काँटे और पत्थर
आगे बढ़ने के साथ-साथ
जब तक सांसों और मेरी गति थम न जाए।
प्रीति सुराना
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