नव्यबोध
नवगीत मांगते नव्यबोध,
वो बोध कहाँ से लाऊँ ।
अब भी जकड़ी बंधन में
मैं ,कैसे बाहर आऊँ ।
माना है बदला पहनावा
बदली भाषा शैली,
लेकिन मन की गंगा निश दिन
है मैली की मैली,
स्वच्छ भाव जो गीत रचें
वो भाव कहाँ से पाऊँ,..
नवगीत मांगते नव्यबोध, वो बोध कहाँ से लाऊँ
अब भी जकड़ी बंधन में मैं ,कैसे बाहर आऊँ ।
नई सोच का राग अलापें
दुनिया में नर नारी,
पर पीछे हट जाते अक्सर
बदलावों की बारी ,
सोच नहीं बदले जब तक
कैसे नवगीत सुनाऊं,..
नवगीत मांगते नव्यबोध, वो बोध कहाँ से लाऊँ ।
अब भी जकड़ी बंधन में मैं ,कैसे बाहर आऊँ ।
बदल जाएँ पहनावे पर
माहौल नहीं है बदलता,
नर नारी का भेद हमेशा
संग साथ ही चलता,
बेटी को फिर किस मुख से मैं
सीख नई समझाऊँ ..
नवगीत मांगते नव्यबोध, वो बोध कहाँ से लाऊँ ।
अब भी जकड़ी बंधन में मैं ,कैसे बाहर आऊँ ।।
प्रीति सुराना
No comments:
Post a Comment