जेबों भर खील बताशे थे,
मस्ती और खेल तमाशे थे,
झोली भर भर खुशियां थी,
फुलझड़ियां और पटाखे थे,...
आंगन में दीये रोशन थे
सच में वो दीवाली थी,....।।
भेद नहीं जब लोगों में थे,
प्रेम सभी के दिलों में थे,
हंसी ख़ुशी से मिलजुल कर,
पड़ोसी भी मिलते महफ़िलों में थे,..
मोहल्ले भी रोशन होते थे
सच में वो दीवाली थी,...।।
फीके सब पकवान लगे,
शहर भी अब वीरान लगे,
रस्में बेमन से निभाते हैं,
बेरंग सभी त्यौहार हुए,...
बारुद की महक है सड़कों पर
ये कैसी दीवाली है,..??
मन में कोई अरमान नहीं है,
घर में कोई मेहमान नहीं है,
अब सब खुद में ही गुम है,
अपनेपन का नामोनिशां नहीं है,..
अब बैठ के सोचूं मैं ये आज
ये दीवाली है या वो दीवाली थी...??? .... प्रीति सुराना
बेहतरीन
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