अखबार आज हाथों में कल का है
पढ़कर आँसू गालों पर ढलका है
दोस्त बनकर लोग गुनाह करते हैं
किरदार जैसे किसी खल का है
जो ज्ञान की बातें किया करते हैं
उनके व्यवहार से सच छलका है
व्यर्थ बहाए या आँख से निकले
मोल बहुत बून्द-बून्द जल का है
उम्मीद की किरण नज़र नहीं आई
अंतस से खुद पर यकीन झलका है
मेरे नाम से दुनिया मुझे पहचाने
इंतज़ार मुझे बस उसी पल का है
डरती नहीं किसी से पर खामोश हूँ
साथी जमाना सिर्फ छल-बल का है
खुद को खोलकर किताब सा रख दिया
सच में 'प्रीत' आज मन बहुत हलका है
प्रीति सुराना
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